Thursday 19 October 2023

सांत्वना पुरस्कार


 विगत एक दशक की लोकसेवा में अपनी टीम के प्रयास से राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार हासिल करने का अवसर मिला पर आज से बारह वर्ष पूर्व मिला यह ‘सांत्वना पुरस्कार’ हमेशा ख़ास रहेगा। 


एक लड़का जिसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा राज्य के सुदूरवर्ती नेपाल सीमा पर अवस्थित क़स्बे में हुई हो, जिसे दसवीं के बाद औपचारिक शिक्षा लेने का मौक़ा न मिला हो, जो स्वाध्याय की बदौलत पहले सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी और फिर लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में दाखिल तो हो गया हो पर पृष्ठभूमि की साधारणता और परिवेश के अभिजात्य का संघर्ष कुछ इस क़दर हावी रहे कि सफलता के आनंद की जगह अस्तित्वमूलक प्रश्न स्थायी भाव बन जाए, जिसकी उपस्थिति को साथी प्रशिक्षु अधिकारी ‘Blink & Miss Probationer’ कहके ख़ारिज कर दें; ऐसे लड़के के लिए घुड़सवारी (Horse riding) जैसी तथाकथित इलीट प्रतिस्पर्धा में महज़ भाग लेना ही एक ‘स्टेटमेंट’ सरीखा था। वहाँ किसी और से कंपीट नहीं करना था, लड़ाई थी ख़ुद के आत्मविश्वास की। यह लड़ाई केवल उस घोड़े को साधने की नहीं थी जिसकी सवारी आप कर रहे थे, लड़ाई उस अदृश्य सवार को साधने की भी थी, जिसका बोझ आपके कंधों पे विरासत में मिला हो। तो भले ही यह पुरस्कार ‘सांत्वना’ का था, पर भविष्य के लिए इसमें बहुत बड़ा ‘आश्वासन’ भी था। 


आज अपने पैतृक निवास पर धूल लगे इस स्मृति चिह्न को देखकर लगा कि अतीत की कुछ स्मृतियों से धूल हटानी चाहिए।


15/10/2023

Sunday 4 June 2023

दहाड़: क्राफ़्ट और किरदार

 दहाड़ सीरीज़ देखते हुए सबसे पहले जो बात खींचती है, वह है उसका क्राफ़्ट। इसकी मिस्ट्री सुरेंद्र मोहन पाठक या वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों की तरह या फिर OTT पर उपलब्ध अन्य crime series की तरह अंत में जाकर नहीं खुलती, बल्कि बिलकुल शुरू से ही एंटागोनिस्ट सामने रहता है, और दर्शक सबूत की तलाश का सफ़र सीरीज़ के किरदार के साथ-साथ तय करता है।

यह कनेक्ट आद्यंत बना रहता है। उदाहरण के लिए जब आरती का पात्र अंजलि भाटी को mislead कर रहा होता है तब दर्शक एक बेबसी महसूस करता है, और उसकी हत्या के बाद भाटी जब कहती है कि उसका झूठ वह नहीं पकड़ पाई, तो किरदार और दर्शक का फ़ासला जाता रहता है। वह बेबसी एकाकार हो जाती है। 


इस सीरीज़ में कलाकारों के उम्दा अभिनय के बारे में बात करते हुए हम कुछ नया नहीं जोड़ रहे होंगे। विजय वर्मा हो या सोनाक्षी सिन्हा या फिर गुलशन देवैया- सबने अपना व्यापक रेंज दिखाया है, पर एक चरित्र जिसने सबसे अधिक ध्यान खींचा है वह है कैलाश पार्घी। जहाँ एक तरफ़ आनंद स्वर्णकार का चरित्र साइकोपैथ सीरियल किलर के ख़ास पैटर्न का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे विजय वर्मा ने आत्मसात् करते हुए जीवंत कर दिया है, वहीं अंजलि भाटी का किरदार भी भारतीय समाज में जातिमूलक एवं लिंग आधारित पूर्वाग्रहों तथा दुर्भावनाओं के विरुद्ध चुनौती की तरह खड़ा किया गया है, जिसे सोनाक्षी ने बिना लाउड हुए (जिसका ख़तरा ऐसे Rebel किरदारों के साथ अक्सर होता है) बखूबी निभाया है। 


ये दोनों चरित्र सशक्त होते हुए भी वर्गीकृत एवं प्रतिनिधिमूलक चरित्र हैं। वहीं पार्घी का किरदार पूरी सीरीज़ में evolve होता है। सीरीज की शुरुआत में जो वह होता है, अंत तक वही नहीं रहता। दर्शक उसके चरित्र और उसके evolution में ख़ुद को ढूँढ पाता है। 


पार्घी को जब अपने होने वाले बच्चे के बारे में पता चलता है तो उसका रिएक्शन कइयों को over the board लग सकता है, किंतु अत्यंत तनावयुक्त जॉब प्रोफ़ाइल वाले लोग यह सहज ही समझ सकते हैं कि प्रोफेशनल स्पेस में घटित होने वाली चीजें कैसे पर्सनल स्पेस को overpower करती हैं और जिन पेशों में products की जगह ज़िंदगियों से डील करना पड़े, वहाँ प्रोफेशनल और पर्सनल का यह द्वंद्व वैसे भी जाता रहता है। 


सीरीज़ की शुरुआत में ईर्ष्या, कुंठा और लालच जैसे भावों का प्रतिनिधि चरित्र प्रतीत होने वाला पार्घी परिस्थितिजन्य चुनौतियों के समक्ष टूटने की जगह मज़बूत बनकर उभरता है। अल्ताफ़ को पुलिस कस्टडी से भगाने में अपने सहकर्मी  SHO देवीलाल सिंह और SI भाटी की भूमिका पता चलने के बाद अब तक प्रमोशन की लालच में रहने वाला पार्घी जब स्कूटर पर एसपी से मिलने निकलता है, तो वह सफ़र उसके किरदार के परिवर्तन का सफ़र है। यह बदलाव प्रेमचंद के किरदारों का हृदय परिवर्तन सरीखा नहीं है। बदलाव सूक्ष्म स्तर पर पहले से घटित हो रहा था। बस उसका उद्घाटन निर्णय की घड़ी में हो रहा है। रेत के टीले पर बैठकर उसका ज़ार-ज़ार रोना मेरी नज़र में पूरी सीरीज़ का सबसे ख़ूबसूरत और मज़बूत दृश्य है। यह रोना उसके किरदार को मानवीय बनाता है। आनंद स्वर्णकार और अंजलि भाटी की तरह कैलाश पार्घी का चरित्र बिलकुल ब्लैक अथवा व्हाइट की श्रेणी में नहीं है, बल्कि चलायमान है, इसलिए हमारे बीच का है और उसका बदलाव नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग। ऐसे nuanced पात्र को निभा ले जाना और दर्शकों तक उस बारीकी का रेशा रेशा पहुँच जाना, सोहम शाह के अभिनय की सफलता है। 


रीमा कागती और ज़ोया अख़्तर को साइकोसोशल स्पेस में एक सशक्त सीरीज़ बनाने के लिए साधुवाद। 


https://hindi.theprint.in/culture/dahaad-web-series-whose-craft-and-characters-unfold-layer-by-layer/547392/

Friday 14 April 2023

पुल

 



न होते पुल तो दूरियाँ कैसे मिटतीं कैसे जुड़ते नदी के सिरे लोगों के दिल सेनाएँ कैसे होतीं पार।

इतना कुछ होने के लिए नदियों को तो सहना ही था अपनी छाती पर वजन धाराओं को बदलनी थी दिशा। लाज़िम था धातुई ठोसता और तरल प्रवाह मान ले एक-दूसरे का सहकार।