Saturday 23 May 2015

मैं कहना चाहता हूँ तुमसे




अतेरों * बार रचनाओं के प्रस्फुटन के साथ ही
उनकी भ्रूणहत्या करता रहा हूँ ,
अपराधबोध एवं कुंठा का लम्बा खींचता दंश
जब असह्य होने को आया,
तो यह तय पाया कि
अब मुश्किल है
स्वयं को और जब्त करना
स्वयं से और दूर रहना।



तो मैं कहना चाहता हूँ तुमसे
कि मजबूरी की जो आधी कड़ी
मुझसे जुड़ती है ,
तो कश्मकश का एहसास
इस पार भी तारी है
गोया कि एक जूझन है, बेबसी है,
उलझन है तानों-बानों की
पर, 'रौशनी के चार गुलाबी टुकड़ों'
का एक सिरा इस पार भी जुड़ता है,
जो हर बार लड़खड़ाने,
गिरने,
टूटने
और उठने के क्रम में
आश्वस्त करता है कि
जुड़ने वाली आधी कड़ी
सिर्फ मजबूरी की नहीं,
उजास की भी है.




तो मैं कहना चाहता हूँ तुमसे
कि हाँ,मुझे याद है वो परछाई
जो लहरों के साथ उठती तो थी
पर गिरती नहीं थी,
टूटती नहीं थी.
जितनी सच सघन भावों  के
गुंफन की वो तरलता थी,
उतनी ही निष्कंप उस परछाई की दृढ़ता।
सतह पर कोमलता द्रवीभूत थी
और अंदर ही अंदर
कहीं कुछ ठोस,
इस्पात-सा
पनप रहा था,
आकार ले रही थी एक ज़िद
खुद को पाने की
और खोने की भी एक साथ.




तो मैं कहना चाहता हूँ तुमसे
कि जो कुछ मैं उकेर गया हूँ
भले ही बाहर की ओर न खुले
तुम जोड़ लोगे
इसके असम्बद्ध सिरों को
और एक अर्थ हो जायेगा मुकम्मल।
हटना एक मानसिक अवरोध का
ऊपर से एक घटना की प्रतीति भले न दे,
किन्तु कई बार कितना मानीखेज होता है.
                                          राहुल कुमार
                                     


*अतेरों=अनेक







Monday 16 February 2015

मुझे आपत्ति है!

'शब्द ब्रह्म है'
यह नहीं कि इस शब्द-समूह
की महत्ता से परिचित नहीं हूँ मैं,
या फिर
इसके सत्य को
संदेह के कठघरे में
खड़ा किया हो कभी भी.
स्वयं रहा मैं उपासक-साधक
शब्दों का,
मुग्ध होकर देखता रहा हूँ
उस जादुई बिम्ब को
जो हो जाता है निर्मित
ध्वनियों के मेल के इर्द-गिर्द।


पर, जब कभी
शब्द करने लगते हैं अभिव्याप्त
अर्थ को,
सीमा-विस्तार शब्दों के
महात्म्य का,
करने लगता है भाव को
पंगु,
मुझे आपत्ति है!


जितनी निरीह है
ओढ़े हुए खोल से
अंतस के खोखलेपन को
ढकने की कोशिश,
उतना ही आपराधिक
शब्दों का 'अर्थ' की सीमा में
अतिक्रमण।
किसने दे दिया संकुचन का यह अधिकार
'ब्रह्म' को?
मुझे आपत्ति है!


मुझे स्वीकार नहीं
कि
शब्द तो सीना ताने
अपने औदात्य के मद में रहें चूर
और अर्थ!
बेबसी के कोने में
मंथन  को अभिशप्त
कि कहाँ तो तय था
जिसका वाहक होना
वह क्योंकर बन बैठा नियंता!
अभिव्यक्ति ही तो शर्त थी
शब्द और अर्थ के बीच
अनुबंध की.


और भले ही,
पुराने उपमानों को
मैला बताने वाले युग कवि ने
स्थापित किया,
कि-
'काव्य सबसे पहले शब्द है
और सबसे अंत में भी
यही बात बच जाती है
कि काव्य शब्द है'
-मुझे आपत्ति है!

                   ( 'तद्भव' के जून 2016 अंक में प्रकाशित कविता।)

Saturday 7 February 2015

व्यर्थता

अर्धनिद्रा और अर्धस्वप्न के मध्य कहीं
स्याह झुरमुटों से गुजरते हुए
व्यर्थता
'अर्थ' की परिभाषा से टकरा रही थी।
'सब कुछ' के पीछे की नियति
'हर कुछ' के पीछे का कारण
अपने वज़ूद का
अपने होने का,
व्यर्थता
'अर्थ' मांग रही थी।


हर कोई कर रहा जतन
कोई न कोई जवाब पाने को
पर
सवाल मौजूद है
शाश्वत है
खड़ा है चुनौती की तरह
'होने'  पर।
हर इंसान चलता फिरता
प्रश्नवाचक चिन्ह है।



कहीं से चलकर
 कहीं भी
पहुँचने की जद्दोजहद में
कहीं भी
न पहुँच पाने की व्यर्थता।
शून्य से उत्पन्न व्योम
शून्य से ऊर्जस्वित व्योम
भूलकर अपना उत्स,
ग़फ़लत की रफ़्तार में है
और
बग़ैर उसकी जानकारी के
एक असीम शून्य
तारी हो रहा क्रमशः हर कहीं
बाहर -भीतर।
शून्य देख रहा रफ़्तार को
शून्य हंस रहा बेसबब
व्यर्थता पर सारी कवायदों के।


फड़कती रहती है
कनपटी की नस,
नींद की बड़बड़ाहट सरीखा
बेमतलब है हर कुछ।
या फिर,
'अर्थ' स्वयं भ्रम है,
धोखा है,
बेमानी है,
अर्थहीन है!
और 'व्यर्थता'
शाश्वत,
पवित्र,
असीम एवं
अर्थवान!
शून्य 'जवाब' मांग रहा।

                       ('तद्भव' के जून 2016 अंक में प्रकाशित कविता।)