Friday 8 April 2022

इज़्ज़त और पितृसत्ता


 आज शाम कार्यालय में एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई। उन्होंने बहुत परेशानी की हालत में बताया कि उनकी बेटी के पूर्व प्रेमी ने पुरानी Video chat की रिकॉर्डिंग वाइरल करने की धमकी देकर पूरे परिवार को परेशान कर रखा है। यहाँ तक की उसने वह video उन्हें (लड़की के पिता को) भी भेज दी।

उन्होंने रोते हुए कहा कि हमारा परिवार ‘वैसा’ परिवार नहीं है और हमारी इज्जत चली जाएगी।मेरे साथ बैठे पुलिस अधीक्षक ने उनसे उस लड़के की details लीं। वह लड़का किसी और जिले का रहने वाला है। हमने उन्हें शीघ्र और सख़्त क़ानूनी कार्रवाई का यक़ीन दिलाया। पर, साथ ही एक और बात उन्हें बतायी।


मैंने उन्हें कहा कि कोई भी परिवार ‘वैसा’ परिवार नहीं होता और ऐसी घटना किसी के साथ हो सकती है इसलिए सबसे पहले इज़्ज़त जाने के भय को दिल से निकालना होगा।

फिर सोचा कि इज़्ज़त की पूरी अवधारणा कितनी पितृसत्तात्मक (patriarchal) है और कैसे इज़्ज़त का पूरा बोझ (इस मामले में) आरोपी की जगह पीड़ित पर आ जाता है। विडम्बना यह है कि पितृसत्ता स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों को भी अपना शिकार बना लेती है।


वह पिता अपनी बेटी के साथ हो रहे अपराध पर यथोचित प्रतिक्रिया देने की जगह समाज में इज़्ज़त को लेकर बेबस और लाचार नज़र आ रहा था। ख़ैर, cyber bullying को बर्दाश्त न करें। आपकी चुप्पी आपकी ‘इज़्ज़त’ बचाए न बचाए, ऐसे आपराधिक तत्वों की हिम्मत ज़रूर बढ़ा देती है।


Wednesday 9 March 2022

जेल की बात


 अपनी नौकरी की शुरुआत में SDM के तौर पर या कुछ वर्ष पूर्व तक जिलाधिकारी के रूप में भी जब जेल में छापेमारी के लिए जाता था तो मोबाइल और सिम कार्ड सबसे common recoveries में शामिल होते थे। 


देर रात या अहले सुबह की रेड में जेल वार्ड की खिड़कियों के बाहर, शौचालयों में, पौधों के गमलों में मिट्टी के भीतर, ईंट के नीचे छुपाकर रखे हुए सिम कार्ड और मोबाइल के अलग-अलग किए हुए हिस्से मिलते थे। 


फ़िल्म और मीडिया द्वारा बनाए गए perception के कारण बाक़ियों की तरह मुझे भी लगता था कि इनमें से अधिकतर का उपयोग जेल के अंदर से क्राइम ऑपरेट करने में होता होगा। 


हाल के दिनों में रेड के दौरान जब मोबाइल मिलने लगभग बंद हो गए तो सालों से बनी हुई समझ में course correction करने की ज़रूरत महसूस हुई। 


वस्तुतः विभाग के आदेश से जब से जेल के अंदर फ़ोन बूथ की शुरुआत हुई तब से ही बंदियों को कक्षपालों से मिलीभगत कर मोबाइल का जुगाड़ करने की ज़रूरत पड़नी बंद हो गयी। 


अपवादों को छोड़ दें तो जेल के अंदर मोबाइल क्राइम ऑपरेट करने के बजाए अधिकतर अपनों से बात करने की छटपटाहट में रखे जाते थे। एक नीतिगत निर्णय कई बार ज़मीनी बदलाव लाने के साथ साथ पूर्वाग्रहों पर भी मारक प्रहार कर जाता है। 

Tuesday 8 March 2022

सशक्तिकरण की बात महिला दिवस पर

 बग़ैर शोर शराबे के सतह पर हो रहे महिला सशक्तिकरण की बानगी देखनी हो तो बिहार आइए। विगत लगभग डेढ़ दशक में जीविका के माध्यम से आर्थिक-सामाजिक और प्रकारांतर से राजनीतिक प्रक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी प्रतीकात्मक शुरुआत से बढ़ते हुए हक़दारी तक पहुँच गयी है। आज दस लाख से अधिक स्वयं सहायता समूहों की एक करोड़ जीविका दीदियाँ न केवल ग्रामीण बिहार के आज को सँवार रही हैं बल्कि आने वाली पीढ़ी की बेहतरी के लिए नींव भी मज़बूत कर रही हैं। 



यह तस्वीर पिछले सप्ताह की है जब कुछ जीविका सदस्यों से वार्तालाप का अवसर मिला था। इनमें से हर महिला की कहानी एक तरफ़ तो निष्ठुर परिस्थितियों का इतिहास बताती है वहीं दूसरी तरफ़ मानवीय जीवट में हमारा यक़ीन और पुख़्ता करती है। 


कहानी 1:- एक महिला है। अल्पसंख्यक समुदाय से आती है। कम उम्र में बेमेल शादी करा दी जाती है। पति की असामयिक मौत के बाद बच्चों सहित निराश्रित हो जाती है। गाँव में असंगठित श्रम का ढाँचा पूरी तरह से अनौपचारिक होने की वजह से पड़ोसियों के घरों में झाड़ू-बर्तन करने के बावजूद बदले में कभी-कभार (not fixed) दस-बीस रुपए और भोजन की एक थाली भर मिलती थी। बच्चों या ख़ुद के बीमार होने की स्थिति में कोई परिवार सहायता क्या कहें क़र्ज़ के रूप में भी पैसे देने के लिए तैयार नहीं होता था। असहाय होकर इस महिला ने बच्चों समेत आत्महत्या करने की भी बात सोचनी शुरू कर दी थी। ऐसे वक़्त में उसे गाँव की जीविका दीदियों का साथ मिलता है और समूह से जुड़कर लघु ऋण और बचत के माध्यम से आज उसकी किराने की अपनी दुकान है। उसके दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं और गरिमा की ज़िंदगी जी रहे हैं। 


कहानी 2:- व्यक्तिगत बेबसी पर सामूहिक एवं सांगठनिक विजय की एक दूसरी कहानी सुनते हुए मन एक पंक्ति पर अटक गया जब एक महिला ने यह बताया कि समूह में जुड़कर साप्ताहिक बचत के रूप में दस रुपए जमा करने की गुंजाइश भी उसकी और दिहाड़ी मज़दूरी करने वाले उसके पति की सामर्थ्य से बाहर थी। उसने भले ही अपने आज और आने वाले कल को बेहतर कर लिया हो पर महज़ 3-4 वर्ष पहले सप्ताह में दस रुपए तक की बचत नहीं कर पाने की बात हमारे ज़ेहन में चुभती रह जाती है। 


कहानी 3:- 18 वर्ष की एक लड़की, जिसकी शादी तीन साल पहले परिवार वाले करा रहे थे, बताती है कैसे उसने उस जीविका समूह से सहायता ली जिसमें उसकी माँ सदस्य थी और कैसे उस समूह ने परिवार के ऊपर दबाव बनाकर, क़ानूनी कार्रवाई की धमकी देकर उसकी शादी रुकवायी। आज वह BA Part 1 की छात्रा होने के साथ साथ एक ऐसे ही समूह में bookkeeping का काम भी करती है। 


बिहार में महिलाओं के आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण की ऐसी अनगिनत कहानियाँ हर गाँव में देखने को मिल जाएँगी। फ़रवरी, 2020 में अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में माननीय प्रधानमंत्री ने पूर्णिया की उद्यमी महिलाओं का ज़िक्र किया था। 



IMF की वरीय अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने Post-Pandemic वैश्विक मंदी से निपटने का सबसे कारगर उपाय सभी राष्ट्रों द्वारा महिलाओं की untapped आबादी को कार्यबल में शामिल करना बताया है। 


Thursday 24 February 2022

हासिल

 17 फ़रवरी, 2022 को दिल्ली में सड़क दुर्घटना में पूर्णिया के एक आदमी की मृत्यु होती है। 21 फ़रवरी को उसके परिवार और गाँव वाले कार्यालय आकर बताते हैं कि शववाहन का किराया देने की स्थिति नहीं होने के कारण dead body दिल्ली में ही है।

ख़ैर भुगतान की व्यवस्था कराने पर आख़िरकार शव कल 23 फ़रवरी को गाँव पहुँच गया, पर उस परिवार की बेबसी को कैसे व्यक्त किया जा सकता है जिसका कमाऊ सदस्य अकाल मारा गया और ग़रीबी इतनी कि शव तक को लाने में 6 दिन लग गए।

ठीक है कि असमानता को समाप्त करने की बात यूटोपिअन है, पर मृत्यु में भी गरिमा न दिला सके, समाज और व्यवस्था का ऐसा भी क्या हासिल।

Monday 10 January 2022

रवींद्र कालिया

 रवीन्द्र कालिया जी नहीं रहे। गत् वर्ष पटना कथा समारोह में पहली एवं आख़िरी मुलाक़ात हुई थी। उनकी लेखनी की प्रवाहमयता से जितना प्रभावित था, उनके व्यक्तित्व की सौम्यता ने और अधिक मुरीद बना लिया। 'ग़ालिब छूटी शराब' पढ़कर फ़िक्शन और नन-फ़िक्शन के मध्य का द्वंद्व जाता रहा था। '17 रानाडे रोड' एवं 'नौ साल छोटी पत्नी' भी रचनात्मकता के शिखर को स्पर्श करती है। किंतु जब कालिया जी के स्वयं के स्वर में 'गौरैया' का पाठ सुना तो लगा शिखर केवल ख्यात होना नहीं है।साम्प्रदायिकता के कुचक्र के समक्ष 'गौरैया' की निरीहता को कालिया जी ने चुनौती के स्तर पर खड़ा कर बिल्कुल नवीन किंतु सफल प्रयोग किया है। कालिया जी अपने वक़्त की हलचलों से निरपेक्ष नहीं थे, इसी कारण उनका साहित्य केवल रसबोध के स्तर पर ही नहीं युगचेतना के दृष्टिकोण से भी प्रासंगिक है और रहेगा। मेरे प्रिय लेखकों में से एक मोहन राकेश के बारे में विशेष बातचीत के लिए उन्होंने दिल्ली आमंत्रित किया था। अफ़सोस अब वह मुलाक़ात नहीं हो पाएगी किंतु 

पटना कथा समारोह में रवीन्द्र कालिया जी का कहानी पाठ एवं कालिया दम्पति के साथ हुई स्नेहसिक्त मुलाक़ात कभी नहीं भूलेगी।स्मृति शेष। 

जनवरी, 2016