Sunday 3 July 2016

दुरुहता

दुरुहता के आरोपों से जूझते हुए
सोचा,
ठिठक कर आत्मचिंतन कर लेना
हमेशा श्रेयष्कर होता है।
दिशा भाषा की हो
या कि ज़िन्दगी की,
अनियंत्रित ठीक नहीं होती।

ठीक उसी वक़्त
अंतस के सांकल में जबरन
क़ैद कर दिए गए कोनों से
गूंजा एक प्रश्न -'वाकई?'
'दिशा' और 'नियंत्रण' की
आवश्यकता तय करने वाले हम,
और क्या क्या तय कर लेते हैं
'स्वयं' की ज़िन्दगी में!

जिस 'समझ' के भरोसे
यह कलम थामी है,
वह स्वयं नहीं स्वतंत्र,
वशीभूत है संस्कारों के
परिस्थितियों ने जिन्हें अपना 'खांचा' दे रखा है।

'तर्क' जिनके सहारे हम
पार पाना चाहते हैं
हर द्वंद्व, हर विरोध से,
वह स्वयं नहीं स्वतंत्र
'सिद्धि' हेतु पैनेपन के अतिरिक्त
अपने अवलंब पर है आश्रित
बुरी तरह से।

जब कि
'समझ' एवं 'तर्क'
स्वयं नहीं स्वतंत्र
जकड़े हुए हैं अदृश्य बेड़ियों से
पहरा जारी है शनै शनै,
तो भी
एक द्रष्टा मन है,
'संजय' की आँखों से देखता,
अतिक्रमण करता हर पराजय बोध का
शंखनाद करता है-
'इंसान लिलिपुट नहीं है'

यद्यपि जीवन गणित नहीं
एवं 'आगमन-निगमन' के दायरें भी
स्वयं को पाते हैं असमर्थ
'डिकोड' कर पाने में इसे पूर्णतः
 हू-ब-हू 'थ्योरी' की तरह,
तो भी,
अनसुलझे प्रश्नों को
नियतिवाद का वाहक क्यों होना चाहिए?
मैं प्रश्न करूँगा
क्यूंकि प्रश्न करना ज़िंदा होना है
और मैं जानता हूँ कि
जिसे 'नियति' कहा जाता एवं
'नियंता' माना जाता है,
वह 'कर्म-इकाइयों' का
अंतराल-मात्र है।

और जब
'दिशा' एवं 'बोध' पर नियंत्रण
का प्रश्न-
कृत्रिम आग्रह है,
'अतिक्रमण' को युग का
मुहावरा बन जाना चाहिए
एवं 'दुरुहता' आरोप नहीं
चुनौती हो,
'सहजता' को झकझोड़ने को,
आवरणों से मुक्ति हेतु।

और भले ही
समझ के स्तर पर
दुर्बोध रहूँ,
भाषायी पर्यावरणविदों के फतवों
के समक्ष साफ़ कर देनी हैं
कुछ बातें
अभी-की-अभी।
दुरुहता और शुद्धतावाद में
नहीं है अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
वरन विशुद्धता सीमा है,
रोक है,
मौत है
एवं मिश्रण- प्रगति,
श्रृंखला
शाश्वतता।
      

                       राहुल कुमार
         ('तद्भव' के जून 2016 अंक में प्रकाशित कविता।)