कितना कुछ होता है
अंदर
उफान की तरह।
भाषा पाती है
अक्षम ख़ुद को।
हज़ारों साल की कोशिशें
क़वायदें
और दावे
सब के सब पाए गए नाकाफ़ी।
नाज़ुकी इतनी कि
स्पंदन भी ख़तरा हो
दुर्धर्ष इतना कि
ख़ारिज न किया जा सके।
क़लम की रौशनाई
कह नहीं पाती
जो कोरे पन्ने
कर जाते हैं बयां,
कुछ एहसास
अव्यक्त ही रह जाएँगे
पर रहेंगे,
नरम गीले सीमेंट पर
उकेरी गई आकृतियों की तरह
जो जम कर हो जाएँगे
ठोस
अमिट
अभिव्यक्त।
नाज़ुकी इतनी कि
ReplyDeleteस्पंदन भी ख़तरा हो"
इन पंक्तियों में ही अव्यक्त का व्यक्त छुपा बैठा है।
सचमुच कुछ एहसास अव्यक्त ही रह जाएंगे !
दुनिया में हर तरह का डीएम देखा लेकिन आपके तरह कोई ना देखा
Deleteअभिव्यक्त भी अव्यक्त भी.. सुन्दर कविता..
ReplyDeleteकहते हैं कविता,घनीभूत संवेदनाओं की उपज होती है..
अपनी समझ में कुछ कम आया पर सीमेंट कहाँ से आया आपके दिमाग में?
Cast in stone तो सुना था..
सर मै आपसे यही कहूंगा की आप अपने कार्य के प्रति अपनी निष्ठावान है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteसर मेरे मन मे एक बात है कि आपके पास इतना time कैसे मिल जाता है कि आप instragram ट्वीटर और ब्लॉग पर ये कविता लिख देते है । सोने और जागने का schudel हमे बताए।
बहुत सुंदर। समझने वाले अव्यक्त को भी समझ लेते हैं और वही खास होते हैं।
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ReplyDeleteUnknown21 March 2022 at 11:07
ReplyDelete"कुछ एहसास
अव्यक्त ही रह जाएँगे
पर रहेंगे"
हर व्यक्ति के जीवन में यह अव्यक्तता रह जाती है।