रात और दिन
ज़ीने से टंके
दो झरोखों की तरह,
वक़्त की साँकल से
खुलते- अनखुलते,
एक-दूसरे को ताकती
सुरंग,
याकि
एक इनफिनिटी लूप में
गुत्थमगुत्था
काल प्रवाह ।
प्रवाह, जिसको बाँटा है
इकाइयों की सटीक आवृतियों में
ताकि यक़ीन दिलाया जा सके
कि कुछ भी यादृच्छिक नहीं है ।
प्रवाह, जिसको बाँधा है
टाइम और स्पेस की
जुगलबंदी में
ताकि बताई जा सके
वजह
हर तरतीब
और
बेतरतीबी की ।
रात और दिन
हिंट्स हैं
एक अनसॉल्व्ड पज़ल के
जिसे सुलझाने की क़वायद में हैं
तमाम, जाने-अनजाने ।
रात और दिन
रिमाइंडर हैं
कि
बारम्बार दुहराती क्रिया से
क्षय की प्रतीति भले न हो
सब कुछ होता जाता है
तमाम, जाने-अनजाने ।
रात और दिन
पॉज़ हैं
नेपथ्य में चल रही
किसी अभ्यंतर क्रिया के शायद
जिसे जानने की वर्जना है
पर जिसके कर्ता हैं
तमाम, जाने-अनजाने ।
शानदार सर !
ReplyDeleteWow! How easily you clarify the difference between Day and Night. Well done sir.
ReplyDeleteसर को सादर प्रणाम,
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा कविता लिखी गयी है सर
सर मैं आपसे मिलना चाहता हूं, कैसे संभव है!
Na din ne din dekha na raat ne Raat bejrogari ki thi asii maar chhupat ho gya sansaar kripya hamri problem ki or v dhyaan djiye...
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