किताबें सभ्यता में घटित होने वाली सबसे मानीखेज़ घटना मानी जा सकती हैं । सृजनात्मक यात्रा, भविष्य की उम्मीद, अतीत की स्मृति, स्मृति की सीख, दुर्धर्ष आकांक्षा, अन्वेषण की प्रक्रिया, प्रक्रिया का अन्वेषण-इन सब का दस्तावेज किताबें ही हैं। किताबें ना होती तो हर पीढ़ी को अपना आरंभ शून्य से करना पड़ता और पुरानी पीढ़ियों के संघर्ष एवं अनुभव के लाभ अल्पजीवी होकर बेमानी हो जाते। वैदिक ज्ञान ने यद्यपि श्रुति परम्परा में वक्त का कुछ सफर तय जरूर किया किंतु यह सत्य है कि सभ्यता और संस्कृति आज जिस मुकाम पर पहुँची है, उसमें संकलित ज्ञान के वाहक के रूप में किताबों का योगदान अप्रतिम है।
किसी समाज या समुदाय के मिज़ाज या उसके टोन को परखने का एक प्रतिमान ये हो सकता है कि उसकी सामूहिक चेतना में किताबों को क्या स्थान प्राप्त है। पढ़ने वाला समाज प्रायः ज्यादा उदार, ज्यादा लचीला एवं ज्यादा विकसनशील होता है तथापरिवर्त्तन के प्रति ज्यादा स्वीकार्यता भी रखता है। समुदाय से उतर कर जब हम व्यक्तिमात्र पर किताबों के प्रभाव की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किताब के आरंभ में व्यक्ति जो होता है अंत तक बिल्कुल वही नहीं रह जाता। प्रभाव कम, ज्यादा, अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है, किन्तु व्यक्ति बिल्कुल वही नहीं रह जाता। यह किताब के स्वयं की सफलता या सार्थकता का प्रतिमान भी हो सकता है। चेखव ने ‘कहानी’ के संदर्भ में एक बात कही थी ‘‘यदि कहानी की शुरूआत में आपने बन्दूक टंगी हुई दिखाई है तो अंत तक वह बंदूक चल जानी चाहिए।’’ अर्थात् कहानी में एक भी शब्द अनावश्यक/अकारण नहीं हो सकता। समान उदाहरण को लेकर कहें तो कह सकते हैं कि प्रभाव से बिल्कुल शुन्य कोई किताब अस्तित्व में नहीं आ सकती। यदि किताब है, तो प्रभाव जरूर होगा, होना ही है।
किताबें, उनके महत्व और प्रभाव की बातें भूमिका में इसलिए की गई हैं ताकि इंटरनेट और संचार के आधिपत्य वाले इस दौर में जब हम पुस्तकालय का जिक्र करें तो ‘किताबों से इश्क की आखिरी सदी’ कहकर इसे सिरे से खारिज न किया जा सके। इक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत जाने के बावजूद पुस्तकालयों की बात इसलिए आवश्यक है, क्योंकि समतामूलक समाज अभी भी यूटोपियन संकल्पना है। अवसरों की विषमता ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों की आकांक्षाओं की भ्रूणहत्या न कर दे, इसके लिए आवश्यक है कि संसाधन और सपनों की खाई को पाटने वाले पुल तैयार किए जाएँ। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था “Education is a Liberating force and in our age it is also a democratizing force, cutting across the barriers of caste & class, smoothing out inequalities imposed by birth &other circumstances.” अभी भी जाति, वर्ग, समुदाय, भाषा एवं संसाधन की सीमाओं को लांघने के लिए शिक्षा एवं प्रकारांतर से किताबें आजमाए हुए सबसे सफल विकल्पों में से हैं।
वर्ष 2019 के सितम्बर माह में जब पूर्णिया के जिलाधिकारी के रूप में पदभार ग्रहण किया तो पाया कि देश के सबसे प्राचीनतम जिलों में शुमार, खुबसूरत आवो-हवा और मनोरम लेंण्डस्केप वाला यह जिला राज्य में साक्षरता के दृष्टिकोण से सबसे निचले पायदान पर बैठा है। यह भी पाया कि ‘मैला आंचल’ जिसे हिन्दी भाषिक समाज में ‘गोदान’ के पश्चात् सार्वाधिक प्रतिष्ठा हासिल है, के कथानक एवं विन्यास की भूमि होने के बावजूद यहाँ पढ़ने की सस्कृति (Reading Culture) क्षीण होती जा रही है। कोसी, महानंदा एवं गंगा की सीमाओं के बीच बाढ़ग्रस्त इस क्षेत्र की आकांक्षाएँ (Aspirations) भी सीमाओं में बंधी लगी।
इसी पृष्ठभूमि में 25 जनवरी 2020 को ‘अभियान किताब-दान’ की शुरूआत हुई। मकसद था कि उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभाते हुए Haves एवं Have-nots के बीच पुल बनाने का कार्य किया जाय। लक्ष्य रखा गया कि लोगों से उनकी पढ़ी हुई किताबें दानस्वरूप लेकर वंचित किन्तु इच्छुक तबके तक पहुँचायी जाय। जनसहयोग से जिले के प्रत्येक ग्राम पंचायत में क्रियाशील पुस्तकालय खोलने का संकल्प लिया गया। समुदाय को पूरी प्रक्रिया में आद्यंत शामिल करने के पीछे दो मुख्य वजहें थीं। एक तो पूर्व में केवल सरकारी योजनान्तर्गत पुस्तकालयों हेतु क्रय की गयी किताबों का प्रभाव एवं उद्देश्य पूर्ति के दृष्टिकोण से अनुभव प्रायः बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा है। दूसरा किसी भी पहल के दीर्घजीवी होने एवं उसके प्रभाव के दूरगामी होने के लिए आवश्यक है कि समुदाय उसको अंगीकृत कर ले।
पुस्तकालयों के आरंभ से लेकर उनके सफल संचालन तक चार बुनियादी जरूरतों को हमने रेखांकित किया। इनमें सर्वप्रमुख नींव तो किताबें स्वयं हैं। जिला प्रशासन की इस पहल को लोगों ने हाथों हाथ लिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार-प्रसार के कारण युवा पीढ़ी से लेकर प्रकाशन समूह तक इस अभियान में भागीदारी हेतु आगे आए। 2020 एवं 2021 में कोविड-19 के कठिन दौर के बावजूद अल्प समय एवं अल्प प्रयास में ही अभी तक 1लाख 30 हजार से अधिक पुस्तकें हमें प्राप्त हो चुकी हैं, जिनसे जिले के सभी 230 ग्राम पंचायतों एवं 07 नगर निकायों में पुस्तकालय खोलने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सका है। दानकर्त्ताओंने डाक से किताब भेजी हैं, कार्यालयों में आकर पुस्तकें पहुँचायी है। वरिष्ठ नागरिकों की मांग पर जिला प्रशासन द्वारा एक वाहन भी रवाना किया गया एवं एक कॉल पर लोगों के घर-घर जाकर पुस्तकें प्राप्त करने का कार्य किया गया। दस वर्ष के एक बच्चे ‘सक्षम’ ने अपने जन्म दिवस पर इस अभियान में 151 पुस्तकें भेंट की। ऐसी अनेक प्रेरणास्पद कहानियों से हमारे संकल्प का पहला पड़ाव पार हुआ।
किताबें प्राप्त होने के पश्चात् दूसरा अहम पड़ाव आधारभूत ढांचों से जुड़ा हुआ था। लाखों की संख्या में प्राप्त बहुसंख्य श्रेणियों की किताबों को कोटिवार संवितरित कर पंचायतों तक पहुँचाना, भवन-फर्नीचर, संचालन समितियों का गठन, संचालन हेतु दैनिक व्यय आदि ऐसी चुनौतियाँ थीं, जिनको सावधानी से संबोधित नहीं करने पर पुस्तक-संग्रह के आरंभिक उत्साहपूर्ण चरण के पश्चात् इस अभियान के पटरी से उतरने का ख़तरा था। यहाँ हमने सामुदायिक सहभागिता को तंत्र की सामर्थ्य से जोड़ने का प्रयास किया। शिक्षा विभाग एवं पंचायती राज विभाग की आधारभूत संरचना का लाभ लेते हुए पंचायत की छः स्थायी समितियों में से एक शिक्षा समिति के अधीन इन पुस्तकालयों को लाया गया तथा प्रत्येक ग्राम पंचायत में उपलब्ध पंचायत सरकार भवन/पंचायत भवन/सामुदायिक भवनों में पुस्तकालय संचालित करने का निर्णय लिया गया। संचालन समितियों में भी स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर युवा स्वयंसेवक, गाँव में रह रहे इच्छुक सेवानिवृत्त कर्मी, नेहरू युवा केन्द्र से जुड़े लोगों को भी शामिल किया गया।
पुस्तकालय संचालन से जुड़ी तीसरी जरूरत वह कड़ी है जिसके लिए यह सारा प्रक्रम है-पाठक। पाठकों को पुस्तकालयों तक लाने हेतु आक्रामक प्रचार-प्रसार (Aggressive Campaigning)का सहारा लिया गया एवं पुस्तकालयों के निकटवर्ती क्षेत्रों में बैठकों का आयोजन करने से लेकर सोशल मीडिया का भी सकारात्मक उपयोग किया गया । फिर एक बार पाठकों के आ जाने के पश्चात् उन्हें रिटेन (Retain) करना एक वास्तविक प्रश्न था, जो हमारी चैथी चुनौती भी थी-पढ़ने की संस्कृति (Reading Culture) का विकास। सतत चलने वाली इस प्रक्रिया में हमने पेशेवर व्यक्तियों एवं संस्थाओं की मदद लेकर जहाँ एक ओर संचालन समितियों के सदस्यों का उन्मुखीकरण कार्यक्रम आयोजित किया, वहीं दूसरी तरफ उनके समक्ष इस अवधारणा को स्पष्ट किया गया कि पुस्तकालय का तात्पर्य केवल किताबें, भवन एवं पाठक नहीं होता, बल्कि रोचक तरीकों से एक Engaging and Conducive वातावरण का निर्माण करना भी होता है, जिसके अभाव में इस पूरे अभियान को Sustainable बनाये रखना संभव नहीं होगा।
‘अभियान किताब-दान’ की अभी तक की यात्रा उम्मीद जगाने वाली रही है। हजारों लोगों के सहयोग से प्राप्त लाखों पुस्तकों ने पूर्णिया जिले में अरसे बाद किसी सामुदायिक हित के प्रश्न पर जनांदोलन की शक्ल अख्तियार की है। हमारे इस अभियान से प्रभावित होकर कई ऑनलाइन प्लेटफार्मों ने इन पुस्तकालयों में निःशुल्क मेडिकल एवं लॉ जैसे विषयों से जुड़े पाठ्यक्रमों के लिए कोचिंग देने की इच्छा जाहिर की है। भविष्य के रोडमैप में हमने सहकार प्रतियोगिता (Co-operative Competition) के माध्यम से बेहतर उपलब्धि हेतु अन्तर्पुस्तकालय (Inter-Libraries) गतिविधियों को शामिल किया है। साथ ही वर्चुअल माध्यम से भी इन पुस्तकालयों को जोड़ने की योजना पर कार्य जारी है।
उम्मीद है कि ‘अभियान किताब-दान’ से जुड़ कर लाभान्वित होने वाली पीढ़ी अपने लिए एक बेहतर कल, एक बेहतर समाज के निर्माण में योगदान दे पाएगी। इन पंक्तियों से लेखक का यह दृढ़ विश्वास है कि सतह पर स्थिर प्रतीत होने वाला किन्तु अंतस में क्रान्ति सरीखा प्रभाव लिए बदलाव का रास्ता किताबों से होकर ही गुजरता है।
"किताबें ना होती तो हर पीढ़ी को अपना आरंभ शून्य से करना पड़ता और पुरानी पीढ़ियों के संघर्ष एवं अनुभव के लाभ अल्पजीवी होकर बेमानी हो जाते। "
ReplyDeleteइस आलेख की सबसे महत्वपूर्ण बात.
Dm Sahab Kisi Ko Reply Nahi Dete Hai
DeleteNice article sir
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