Tuesday, 28 December 2021

तक़रीबन साझा


 प्रेम में साझा होता है,

सब कुछ, 

तक़रीबन।

साझी होती हैं स्मृतियाँ,

सपने,

सुख,

शिद्दत,

आतुरता।


साझी है वह डोर भी 

टिका है जिस पर 

सम्पूर्ण ताना- बाना

साझे वक़्त में 

साझी अनुभूतियों से 

जो बुना जाता है।


साझा संघर्ष

राह साझी 

उबड़-खाबड़ पथरीली

या कि 

राजमार्ग सी प्रशस्त

सब कुछ साझा ही होता है 

तक़रीबन।


पर, उदास कमज़ोर साझा क्षणों में भी 

कई बार कुछ चीज़ें 

अपने स्वरूप में एकल हो जाती हैं।

एकल हो जाता है आपका एकांत,

पीड़ा को पसंद है अंतर्मुखी होना 

और 

आपकी उदासी भी आपकी ही होती है 

फ़क़त आपकी। 


Sunday, 3 October 2021

किताबें:- महत्व, प्रभाव और अभियान किताब दान

 किताबें सभ्यता में घटित होने वाली सबसे मानीखेज़ घटना मानी जा सकती हैं । सृजनात्मक यात्राभविष्य की उम्मीदअतीत की स्मृतिस्मृति की सीखदुर्धर्ष आकांक्षाअन्वेषण की प्रक्रियाप्रक्रिया का अन्वेषण-इन सब का दस्तावेज किताबें ही हैं। किताबें ना होती तो हर पीढ़ी को अपना आरंभ शून्य से करना पड़ता और पुरानी पीढ़ियों के संघर्ष एवं अनुभव के लाभ अल्पजीवी होकर बेमानी हो जाते। वैदिक ज्ञान ने यद्यपि श्रुति परम्परा में वक्त का कुछ सफर तय जरूर किया किंतु यह सत्य है कि सभ्यता और संस्कृति आज जिस मुकाम पर पहुँची हैउसमें संकलित ज्ञान के वाहक के रूप में किताबों का योगदान अप्रतिम है। 

    किसी समाज या समुदाय के मिज़ाज या उसके टोन को परखने का एक प्रतिमान ये हो सकता है कि उसकी सामूहिक चेतना में किताबों को क्या स्थान प्राप्त है। पढ़ने वाला समाज प्रायः ज्यादा उदारज्यादा लचीला एवं ज्यादा विकसनशील होता है तथापरिवर्त्तन के प्रति ज्यादा स्वीकार्यता भी रखता है। समुदाय से उतर कर जब हम व्यक्तिमात्र पर किताबों के प्रभाव की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किताब के आरंभ में व्यक्ति जो होता है अंत तक बिल्कुल वही नहीं रह जाता। प्रभाव कमज्यादाअच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता हैकिन्तु व्यक्ति बिल्कुल वही नहीं रह जाता। यह किताब के स्वयं की सफलता या सार्थकता का प्रतिमान भी हो सकता है। चेखव ने कहानी के संदर्भ में एक बात कही थी ‘‘यदि कहानी की शुरूआत में आपने बन्दूक टंगी हुई दिखाई है तो अंत तक वह बंदूक चल जानी चाहिए।’’ अर्थात् कहानी में एक भी शब्द अनावश्यक/अकारण नहीं हो सकता। समान उदाहरण को लेकर कहें तो कह सकते हैं कि प्रभाव से बिल्कुल शुन्य कोई किताब अस्तित्व में नहीं आ सकती। यदि किताब हैतो प्रभाव जरूर होगाहोना ही है। 

किताबेंउनके महत्व और प्रभाव की बातें भूमिका में इसलिए की गई हैं ताकि इंटरनेट और संचार के आधिपत्य वाले इस दौर में जब हम पुस्तकालय का जिक्र करें तो किताबों से इश्क की आखिरी सदी’ कहकर इसे सिरे से खारिज न किया जा सके। इक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत जाने के बावजूद पुस्तकालयों की बात इसलिए आवश्यक हैक्योंकि समतामूलक समाज अभी भी यूटोपियन संकल्पना है। अवसरों की विषमता ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों की आकांक्षाओं की भ्रूणहत्या न कर देइसके लिए आवश्यक है कि संसाधन और सपनों की खाई को पाटने वाले पुल तैयार किए जाएँ। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था Education is a Liberating force and in our age it is also a democratizing force, cutting across the barriers of caste & class,  smoothing out inequalities imposed by birth &other circumstances. अभी भी जातिवर्गसमुदायभाषा एवं संसाधन की सीमाओं को लांघने के लिए शिक्षा एवं प्रकारांतर से किताबें आजमाए हुए सबसे सफल विकल्पों में से हैं। 

वर्ष 2019 के सितम्बर माह में जब पूर्णिया के जिलाधिकारी के रूप में पदभार ग्रहण किया तो पाया कि देश के सबसे प्राचीनतम जिलों में शुमारखुबसूरत आवो-हवा और मनोरम लेंण्डस्केप वाला यह जिला राज्य में साक्षरता के दृष्टिकोण से सबसे निचले पायदान पर बैठा है। यह भी पाया कि मैला आंचल जिसे हिन्दी भाषिक समाज में गोदान के पश्चात् सार्वाधिक प्रतिष्ठा हासिल हैके कथानक एवं विन्यास की भूमि होने के बावजूद यहाँ पढ़ने की सस्कृति (Reading Culture) क्षीण होती जा रही है। कोसीमहानंदा एवं गंगा की सीमाओं के बीच बाढ़ग्रस्त इस क्षेत्र की आकांक्षाएँ (Aspirations) भी सीमाओं में बंधी लगी। 

     इसी पृष्ठभूमि में 25 जनवरी 2020 को अभियान किताब-दान’ की शुरूआत हुई। मकसद था कि उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभाते हुए Haves एवं Have-nots के बीच पुल बनाने का कार्य किया जाय। लक्ष्य रखा गया कि लोगों से उनकी पढ़ी हुई किताबें दानस्वरूप लेकर वंचित किन्तु इच्छुक तबके तक पहुँचायी जाय। जनसहयोग से जिले के प्रत्येक ग्राम पंचायत में क्रियाशील पुस्तकालय खोलने का संकल्प लिया गया। समुदाय को पूरी प्रक्रिया में आद्यंत शामिल करने के पीछे दो मुख्य वजहें थीं। एक तो पूर्व में केवल सरकारी योजनान्तर्गत पुस्तकालयों हेतु क्रय की गयी किताबों का प्रभाव एवं उद्देश्य पूर्ति के दृष्टिकोण से अनुभव प्रायः बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा है। दूसरा किसी भी पहल के दीर्घजीवी होने एवं उसके प्रभाव के दूरगामी होने के लिए आवश्यक है कि समुदाय उसको अंगीकृत कर ले।

      पुस्तकालयों के आरंभ से लेकर उनके सफल संचालन तक चार बुनियादी जरूरतों को हमने रेखांकित किया। इनमें सर्वप्रमुख नींव तो किताबें स्वयं हैं। जिला प्रशासन की इस पहल को लोगों ने हाथों हाथ लिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार-प्रसार के कारण युवा पीढ़ी से लेकर प्रकाशन समूह तक इस अभियान में भागीदारी हेतु आगे आए। 2020 एवं 2021 में कोविड-19 के कठिन दौर के बावजूद अल्प समय एवं अल्प प्रयास में ही अभी तक 1लाख 30 हजार से अधिक पुस्तकें हमें प्राप्त हो चुकी हैंजिनसे जिले के सभी 230 ग्राम पंचायतों एवं 07 नगर निकायों में पुस्तकालय खोलने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सका है। दानकर्त्ताओंने डाक से किताब भेजी हैं, कार्यालयों में आकर पुस्तकें पहुँचायी है। वरिष्ठ नागरिकों की मांग पर जिला प्रशासन द्वारा एक वाहन भी रवाना किया गया एवं एक कॉल पर लोगों के घर-घर जाकर पुस्तकें प्राप्त करने का कार्य किया गया। दस वर्ष के एक बच्चे सक्षम ने अपने जन्म दिवस पर इस अभियान में 151 पुस्तकें भेंट की। ऐसी अनेक प्रेरणास्पद कहानियों से हमारे संकल्प का पहला पड़ाव पार हुआ। 

           किताबें प्राप्त होने के पश्चात् दूसरा अहम पड़ाव आधारभूत ढांचों से जुड़ा हुआ था। लाखों की संख्या में प्राप्त बहुसंख्य श्रेणियों की किताबों को कोटिवार संवितरित कर पंचायतों तक पहुँचानाभवन-फर्नीचरसंचालन समितियों का गठनसंचालन हेतु दैनिक व्यय आदि ऐसी चुनौतियाँ थींजिनको सावधानी से संबोधित नहीं करने पर पुस्तक-संग्रह के आरंभिक उत्साहपूर्ण चरण के पश्चात् इस अभियान के पटरी से उतरने का ख़तरा था। यहाँ हमने सामुदायिक सहभागिता को तंत्र की सामर्थ्य से जोड़ने का प्रयास किया। शिक्षा विभाग एवं पंचायती राज विभाग की आधारभूत संरचना का लाभ लेते हुए पंचायत की छः स्थायी समितियों में से एक शिक्षा समिति के अधीन इन पुस्तकालयों को लाया गया तथा प्रत्येक ग्राम पंचायत में उपलब्ध पंचायत सरकार भवन/पंचायत भवन/सामुदायिक भवनों में पुस्तकालय संचालित करने का निर्णय लिया गया। संचालन समितियों में भी स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर युवा स्वयंसेवकगाँव में रह रहे इच्छुक सेवानिवृत्त कर्मीनेहरू युवा केन्द्र से जुड़े लोगों को भी शामिल किया गया। 

        पुस्तकालय संचालन से जुड़ी तीसरी जरूरत वह कड़ी है जिसके लिए यह सारा प्रक्रम है-पाठक। पाठकों को पुस्तकालयों तक लाने हेतु आक्रामक प्रचार-प्रसार (Aggressive Campaigning)का सहारा लिया गया एवं पुस्तकालयों के निकटवर्ती क्षेत्रों में बैठकों का आयोजन करने से लेकर सोशल मीडिया का भी सकारात्मक उपयोग किया गया । फिर एक बार पाठकों के आ जाने के पश्चात् उन्हें रिटेन (Retain) करना एक वास्तविक प्रश्न थाजो हमारी चैथी चुनौती भी थी-पढ़ने की संस्कृति (Reading Culture) का विकास। सतत चलने वाली इस प्रक्रिया में हमने पेशेवर व्यक्तियों एवं संस्थाओं की मदद लेकर जहाँ एक ओर संचालन समितियों के सदस्यों का उन्मुखीकरण कार्यक्रम आयोजित कियावहीं दूसरी तरफ उनके समक्ष इस अवधारणा को स्पष्ट किया गया कि पुस्तकालय का तात्पर्य केवल किताबेंभवन एवं पाठक नहीं होताबल्कि रोचक तरीकों से एक Engaging and Conducive वातावरण का निर्माण करना भी होता हैजिसके अभाव में इस पूरे अभियान को Sustainable बनाये रखना संभव नहीं होगा।

      अभियान किताब-दान की अभी तक की यात्रा उम्मीद जगाने वाली रही है। हजारों लोगों के सहयोग से प्राप्त लाखों पुस्तकों ने पूर्णिया जिले में अरसे बाद किसी सामुदायिक हित के प्रश्न पर जनांदोलन की शक्ल अख्तियार की है। हमारे इस अभियान से प्रभावित होकर कई ऑनलाइन प्लेटफार्मों ने इन पुस्तकालयों में निःशुल्क मेडिकल एवं लॉ जैसे विषयों से जुड़े पाठ्यक्रमों के लिए कोचिंग देने की इच्छा जाहिर की है। भविष्य के रोडमैप में हमने सहकार प्रतियोगिता (Co-operative Competition) के माध्यम से बेहतर उपलब्धि हेतु अन्तर्पुस्तकालय (Inter-Libraries) गतिविधियों को शामिल किया है। साथ ही वर्चुअल माध्यम से भी इन पुस्तकालयों को जोड़ने की योजना पर कार्य जारी है। 

     उम्मीद है कि अभियान किताब-दान से जुड़ कर लाभान्वित होने वाली पीढ़ी अपने लिए एक बेहतर कलएक बेहतर समाज के निर्माण में योगदान दे पाएगी। इन पंक्तियों से लेखक का यह दृढ़ विश्वास है कि सतह पर स्थिर प्रतीत होने वाला किन्तु अंतस में क्रान्ति सरीखा प्रभाव लिए बदलाव का रास्ता किताबों से होकर ही गुजरता है।    

Tuesday, 28 September 2021

 


बारिश में धुल जाती हैं चीजें

धुंधली यादों का परदा 

संदेह के बादल

निर्णय का द्वंद्व

सब खुल जाता है,

बचता है

ख़ालिस उजास। 


Sunday, 19 September 2021

Newton: Movie review

‪Newton एक आख्यान है- अंतिम व्यक्ति के लिए लोकतंत्र के अर्थ का, बिना Loud हुए सिनेमाई ताक़त का, विचारधारा को impose करने के युग में विचारधारा से मुक्ति का, एक ही Time/Space में बोध के स्तर पर सदियों के फ़ासले का, ईमानदारी की सहजता का धीरे धीरे दुर्लभ और फिर अजूबा हो जाने का।सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए ये फ़िल्म।पंकज त्रिपाठी अभिनय की बारीकियों को काफ़ी सहजता से निभाते है एवं इस फ़िल्म में उनकी देहभाषा से यक़ीन होता है कि एक स्टार अभिनेता का अभ्युदय हो चुका है। राजकुमार राव नई सिनेमा की खोज हैं और फ़िल्म दर फ़िल्म वह इसे साबित करते रहे हैं। रघुवीर यादव तो ख़ैर पुरानी शराब हैं ही, अंजलि पाटिल ने भी प्रभावित किया है।अमित मासुरकर ने निर्देशकों की नयी पौध में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। 

हिंदी कहानी की एक सदी (1915-2015): पाठकीय अपेक्षा एवं पड़ताल

 कहानी की पाठकीय अपेक्षा का प्रश्न अपनी जातस्थिति में अस्तित्त्वमूलक हैक्योंकि कहानी स्वयं पाठकीय अपेक्षा की परिणति है। कहानी लेखक के घर जन्म लेती है। आलोचक उसमें श्रीवृद्धि करता है। संपादक कुछ अंतिम तराश एवं मंच मुहैय्या करता है। किसलिए मंच और तराश किसलिए श्रीवृद्धि किसके लिए स्वयं लेखन भी किसके लिए पाठक के लिए ही न । कला की कोई भी विद्या पाठक-श्रोता-दर्शक द्वारा सराहे जाने के उपरांत ही दीर्घजीवी एवं अर्थवान् हो पाती है। संपादक अथवा आलोचक कहानी को कहानी होने का प्रमाण-पत्र दे सकते हैं किंतु उसको प्राणवत्ता पाठक ही प्रदान करते हैं। यही लेखकीय पूँजी भी है। 

जब समकालीन कहानी की बात चलती हैतो एक प्रश्न बरबस कौंधता है कि समकालीनता कालवाचक है या मूल्यवाचक अपने समय से आगे की कहानी होने का प्रशस्ति-पत्र प्रदान करना कई आलोचकों का पसंदीदा एवं सुरक्षित निष्कर्ष होता हैकिंतु महत्त्वपूर्ण है कि ’’कहानी’’ अपने समय की अपेक्षाओं का वहन करे। युग से कटी साहित्य चेतना न युग के साथ न्याय करती हैन ही साहित्य के साथ। नामवर सिंह के शब्दों में, ’’इतिहास की धारा में धारा एवं किनारा दोनों मनुष्य हैनिरपेक्ष कोई नहीं।’’ वर्ष 2015 के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाली स्वेत्लाना एलेक्सिएविच ने एक साक्षात्कार में गर्व से कहा’’मैं निःसंग इतिहासकार नहीं हूँ ’’ कहानी वस्तुतः अपने समय से मुठभेड़ करने वाली होनी चाहिएअपने समय की हलचलों का प्रतिनिधित्त्व करने वाली भीबिल्कुल नागार्जुन की कविताओं की तरह। ’’मगर जब घर में आग लगी हो तो सिर्फ अपने अंतर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या खुद ही अप्रसांगिकहास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगने लगता ?’’ - मन्नु भंडारी के ये शब्द कहानी से पाठकीय अपेक्षा का रेखाचित्र खींच देते हैं। कहानी को अंतर्जगत से बाहर निकलना ही होगा। 

यदि पाठकीय दृष्टिकोण से हिन्दी कहानी के सौ वर्षों का मूल्यांकन करेंतो यह परंपरा काफी समावेशी एवं विकसनशील प्रतीत होती है। पाठक कहानी के आरंभ में जो होअंत में ठीक वही नहीं रह जाए, (ऐसा प्रभावकारी-परिवर्तनकारी गुण यद्यपि कहानी में उपन्यास एवं नाटकों की तुलना में अपनी काया की सीमा के कारण कम होता है) - इस आधार पर यदि हम हिन्दी कहानी का लेखा-जोखा करें तो पाते हैं कि क्षण की अनगिनत कहानियाँ कालजयी श्रेणी में रखी जाने योग्य हैं।

आधुनिक कहानी कला की दृष्टि से चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ’’उसने कहा था’’ निर्विवाद रूप से प्रथम श्रेष्ठ कहानी है। पंजाबी के प्रभाव के बावजूद संवेदना एवं शिल्प दोनों ही प्रतिमानों पर यह कहानी सौ वर्षों के अन्तराल को बेमानी कर देती है। लहना सिंह का ’’तेरी कुड़माई हो गई’’ पूछना पाठक के अंतस में ऐसा धंसता है कि वर्षों की बहुसंख्य स्मृतियॉं भी उसके असर को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती ।

प्रेमचंद की लगभग 300 कहानियॉं हिन्दी साहित्य की थाती हैं। आरंभिक आदर्शवाद के पश्चात् प्रेमचंद जैसे-जैसे यथार्थ को आत्मसात करते जाते हैउनकी कहानियॉं प्राणवान होने लगती है। शतरंज के खिलाड़ी’, ’कफन’, ’ईदगाह’, ’नमक का दारोगा’, ’सवा सेरगेहूं ’, ’पूस की रात’, ’बड़े भाई साहब’, ’गुल्ली-डंडा’’ आदि कहानियों पर किसी भी भाषिक समाज को गर्व होगा। प्रेमचंद ने जहॉं स्वतंत्रता संघर्षसंयुक्त परिवार का विघटनजातीय एकताकिसान मजदूर समस्याअछूतोद्धारविधवा समस्या आदि विषयों को चुनावहीं जयशंकर प्रसाद की अधिकांश कहानियॉं छायावादी वैयक्तिकता की प्रतिच्छाया से युक्त है। ’’आकशदीप’’ की भाषा संस्कृतनिष्ठ होने के बावजूद अपनी काव्यात्मक प्रवाह के कारण पाठकों के बीच सराही गई।

आगे प्रसाद की व्यक्तिवादी चिंतनधारा का विकास जैनेन्द्रइलाचंद्र जोशी एवं अज्ञेय जैसे कथाकारों ने कियावहीं प्रेमचंद की समाजवादी धारा के वाहक बने यशपालभीष्म साहनीज्ञानरंजनअमरकांत आदि। जैनेद्र की ’’नीलम देश की राजकन्या’’ एवं ’’पाजेब’’ जैसी कहानियाँ जहाँ एक तरफ मनोवैज्ञानिक धरातल पर हिन्दी कहानी को समृद्ध करती हैवहीं नारीवाद को एक आन्दोलन की पूर्व की पीठिका बनाने का श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। इलाचंद्र जोशी ने व्यक्तिवाद के भीतर दमित वासनाओं एवं कुंठाओं का विश्लेषण कियावहीं अज्ञेय ने व्यक्ति-स्वातंन्न्य को अपनी कहानियों में प्रभुखता दी। रोज’, ’होली बोन की बत्तके’, जैसी कहानियॉं पीढ़ी-दर-पीढ़ी पसंद की जाती रही हैं।

यशपाल ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से सामाजिक वैषम्य को उभारा हैवहीं व्यक्ति के मन की तहों में भी झांका हैउसकी पड़ताल की है। ’’परदा’’ कहानी का परिवार अभाव की जगह झूठी मर्यादा को बचाने हेतु चिन्तित है। वर्तमान को स्वीकार न कर विस्मृत अतीत के खोखलेपन के सहारे रहना मृत्यु-बोध की निशानी है और पाठक देखता है कि ’’गोदान’’ का होरी भी सबकुछ खोकर ऐसी ही झुठी ’’मरजादा’’ से चिपका है एवं त्रासदी को अभिशप्त है। यशपाल की एक अन्य प्रसिद्ध कहानी ’’मक्रील’’ में वृद्ध यौनाकुल कवि का कवित्व एक युवती के निश्छल विश्वास एवं बलिदान से ध्वस्त हो जाता है। यशपाल इन्हीं विरूद्धों के मध्य के पाखण्ड को उजागर करते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के कालखंड में बहुत कुछ बदला एवं तद्नुरूप साहित्य का कलेवर भी। अबतक राष्ट्र महज एक संकल्पना थाअब पूर्ण डिटेल्स से युक्त एक ठोस इकाई। साहित्य के विषयमुहावरेंचिंताएँ सब परिवर्तित हुईं। कथ्य में विविधता आई एवं शिल्प के स्तर पर भी अब उलझनपूर्ण मोड़ एवं चरम सीमाओं की जगह आन्तरिक अन्विति पर बल दिया जाने लगा। मध्यवर्ग की आशाओंआकांक्षाओंमोहभंग के साथ कहानीकारों के अपने जीवनानुभव कहानी के केन्द्र में आने लगे। ’’निराला’’ ने जो काम कविता में ’’मैंने मैं’ शैली अपनाई’’ कहकर किया थाहिन्दी कहानी ने भी उस टोन’’ को प्राप्त किया एवं पाठकों के समक्ष नयी कहानी’ का जायका हाजिर था। मोहन राकेश (मलबे का मालिक’, ’मिस पाल’, ’आर्द्रा’, ’एक और जिन्दगी’), कमलेश्वर (खोयी हुई दिशाएँ’, ’राजा निरबंसिया’), ’राजेन्द्र यादव (खुश्बू’, ’टूटना’, ’जहाँ लक्ष्मी कैद है’), मन्नू भंडारी (यही सच है’), उषा प्रियंवदा (मछलियाँ’), निर्मल वर्मा (पिक्चर पोस्टकार्ड’, ’परिंदे’), कृष्णा सोबती (सिक्का बदल गया’, ’बादलों के घेरे’) जैसे कहानीकारों ने नयी कहानी’ को कथ्य तथा शिल्प दोनों ही स्तरों पर समृद्ध किया। विषयगत विविधताभावगत सघनता एवं अपनी प्रभावन्विति के कारण उपरोक्त कहानियों को पाठकों के मध्य क्लासिक्स’ का दर्जा हासिल है। 

नयी कहानी’ के समांतर ग्रामांचल की कहानियाँ भी स्थानीयता को स्वर दे रही थीं। रेणु (तीसरी कसम’, लालपान की बेगम’), शेखर जोशी (कोसी का घटवार’), शैलेश मटियानी (वृत्ति’, ’मैमुद’), मार्कण्डेयविवेकी रायरांगेय राघव आदि कहानीकारों ने अंचल विशेष के इतिहासभूगोलबोलीमुहाबरोंजीवनशैलीसंघर्ष एवं विशिष्ट आंचलिकता को उकेरते हुए यह उद्घोषित किया कि अब देश के एक कोने में खड़े होकरएक दृष्टिकोण से संपूर्ण देश के बारे में सामान्यीकृत बयान जारी नहीं किया जा सकता। 

1960-65 के पश्चात् की कहानी समांतर कहानीअकहानीसचेतन कहानीअचेतन कहानीसक्रिय कहानी’ जैसे अल्पजीवी आंदोलनों से गुजरते हुए धीरे-धीरे बिंबों-प्रतीकों तथा नारों से मुक्त हो गई। परवर्ती कहानी के प्रमुख हस्ताक्षरों में दूधनाथ सिंहमदीप सिंहज्ञानरंजनगिरिराज किशोरकाशीनाथ सिंहप्रियंवदगोविन्द मिश्रराजी सेठअनीता औलकममता कालियारवीन्द्र कालियाअखिलेशअसगर वजाहतउदयप्रकाशपंकज मित्रप्रभात रंजन आदि उल्लेखनीय हैंजिन्होंने हिन्दी जातीय समाज के समक्ष उदारीकरण-भूमंडलीकरण के संक्रमण काल के दौरान उत्पन्न चुनौतियों को सफलतापूर्वक हिन्दी कहानी में उतरने दिया। वैश्वीकरण के युग में नए विषयबदली संवेदना तथा भिन्न पाठकीय अपेक्षा के अनुरूप समकालीन कहानी सामंजस्य स्थापित करने में सफल रही है। यदि इस अवधि की आधा दर्जन ट्रेंडसेटर’ कहानियों को सूचीबद्ध करना होतो मेरी सूची होगी:- (1) चिट्ठी (अखिलेश) (2) वारेन हेस्टिंग्स का सांड (उदयप्रकाश) (3) पॉल गोमरा का स्कूटर (उदयप्रकाश) (4) पिता (ज्ञानरंजन) (5) क्विजमास्टर (पंकज मित्र) (6) जानकीपुल (प्रभातरंजन)।

कहीं पढ़ा था, ’कहानी तने हुए रस्से पर बिना अवलंब के आर-पार पहुँच जाने की जोखिम भरी बाजीगरी है।’ अखिलेश की चिट्ठी’ इसका प्रमाण है। पूरी-की-पूरी कहानी संवेदना के स्तर पर इतनी कसी हुई है कि इसकी भाव सघनता का बांग्ला भावुकता’ के तब्दील हो जाने का जोखिम था। ज्ञानरंजन की कहानी पिता’ इस विषय पर नग्न यथार्थबोध के साथ लिखी गई पहली कहानी है। पंकज मित्र का क्विजमास्टर’ एवं प्रभात रंजन का जानकीपुल’ छोटे कस्बों के अपूर्ण भूमंडलीकृत सपनों की दास्तान हैं। गुरप्रीत कौर के प्रति आसक्ति की प्रेरणा से पंकज मित्र का नायक भारतीय सर्वशक्तिमान सेवा (Indian Almightly Service) में जाना चाहता है पर प्रेरणा’ के बीच में मार्ग बदल लेने से क्विजमास्टर’ बनकर रह जाता हैकिंतु भूमंडलीकरण का प्रभाव उस कस्बे पर भी पड़ता है एवं अमिताभ बच्चन जब स्वयं क्विजमास्टर बन जाएं (कौन बनेगा करोड़पति’) तो फिर उस कस्बाई गिटिर-पिटिर करने वाले’ को कौन पूछता है। जानकीपुल’ एक छोटे से गॉव मधुवन’ के शहर बनने की महत्वाकांक्षा के मध्य की अधूरी कड़ी है। पुल के शिलान्यास के बीस वर्षों के उपरांत भी कार्य प्रारंभ नहीं होता एवं इस बीच लोगों की आशासपनेंप्रेम-प्रसंगजिंदगी सभी इस आभासी पुल के दोनों तरफ पृथक-पृथक पड़े रहते हैं। उदयप्रकाश की कहानियाँ उनकी कविताओं की ही भॉति पाखण्डों परक्रूरता परकृत्रिमता पर प्रहार करती हैं। वारेन होस्टिंग्स का सांड’ फंतासी के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यंग्य हैवहीं पॉल गोमारा का स्कूटर’ कहानी में मुख्य पात्र राम गोपाल सक्सेना अपने नाम को वैश्वीकरण के दौर में पिछड़ा एवं आउटडेटेड’ मानता है तथा वर्तनियों को बदलकर उसे पॉल गोमरा’ कर लेता है। उसके अंदर की असुरक्षाहीनता एवं अफसरशाही के विरूद्ध संचित आक्रोश एक समारोह में फूटता है एवं वह हुंकार भरता है - डायनासोर विलुप्त हो गएचींटी अभी भी हैं। उदयप्रकाश अपनी प्रयोगधर्मिताजोखिम लेने का साहस एवं काव्यसुलभ कल्पना के कारण हिन्दी कहानी को एक बिल्कुल नई जमीन प्रदान करते हैं। उपरोक्त सभी कहानियों में एक तत्व समान है - फिल्म तकनीक का प्रयोग। वस्तुतः यह किस्सागोई का मूल चरित्र. हैजो हिन्दी कहानी में पुनः लौट आया है। कहानियाँ पाठकों के समक्ष संपूर्ण चित्र प्रस्तुत कर रही हैं एवं शिल्प में पटकथा के निकट बैठ रही हैं। यह पाठकीय अपेक्षा के अनुरूप ही है। 

इसी वर्ष पटना में आयोजित हिन्दी कथा सम्मेलन में समकालीन कहानीकारों-आलोचकों का जमावड़ा हुआ । कहानी-पाठ हुआबहस हुईकुछ कहानियाँ मन में अंकित रह गयी। चन्दकिशोर जायसवाल ने ‘‘भोर की ओर’’ कहानी का पाठ किया। रेल की तीसरी श्रेणी की यात्रा है। ‘‘मोटू पतलू’’ सरीखे कॉमिक्स के वर्गीकृत चरित्र है। अपनी-अपनी स्मृति के अनुरूप तथ्यों के स्वरूप परिवर्तित हो जा रहे है तथा रेल इंजन से लेकर रेलमंत्री तक पर राय देने वाले ये यात्री अमर्त्य सेन के आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन’ हैं। धीरे-धीरे रेल की यह यात्रा पात्रों की जिन्दगी के सफ़र के पन्ने पलटने लगती है। एक पात्र के पोते की शादी चैत्र में है एवं वह चिन्तामग्न है। पाठक सीधा पदमावत्’ के नागमति वियोग खण्ड में उकेरित गार्हस्थिक चिन्ता को महसूस करता है एवं काल का अतिक्रमण कर जाता है। रेल की बोगी में ठंड का सामना करते-करते पात्र जिस बेचैनी से भोर का इन्तजार करते हैऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचन्द की पूस की रात’ का हल्कू कई-कई रूप में प्रकट हो गया है। धीरे-धीरे आन्तरिक चिन्ता एवं ठंड से संघर्ष के कारण यात्रियों के मध्य बात-चीत का उत्साह जाता रहता है एवं एक  ऊब पूरी बोगी में पसर जाती है। यह वही  ऊब हैजो आजादी बाद की मोह भंग की कविताओं में हैः- 

चीजों के कोने टूटे

बातों के सिरे डूब गये,

हम कुछ इतना मिले,

कि मिलते-मिलते ऊब गये।’ 

 

इस कहानी में गरीबी विस्तार से उपस्थित है। जिन्दगी डिटेल्स में मौजूद हैसरकार भी डिटेल्स में है ( इन्दिरा आवासपेंशन आदि की चर्चा )। किन्तु जब पात्र पूछता है, ‘भोर होने में अब कितनी देर है ?’, तो ये फैज के इन्तजार वाला सहर नहीं है। यह यात्रा जिन्दगी की है। जिन्दगी समय से गुजर रही हैसमय को बदल रही हैसमय भी जिन्दगी को बदल रहा हैपर कहीं कुछ नहीं बदलता। भोर का इन्तजार तो हैपर किसी नई उम्मीद के लिए नहीं, (जिसका भ्रम शीर्षक से होता है)बल्कि तत्कालिक संघर्ष को टालकर अगले संघर्ष हेतु।

 

 

 

 

गोविन्द मिश्र ने फाँस’ कहानी का पाठ किया । प्रायः शिल्प की प्रयोगधर्मिता के नाम पर किस्सागोई से समझौता कर लिया जाता हैकिन्तु यह कहानी अपनी अभिधात्मकता के बावजूद प्रभाव छोड़ जाती है। दो चोर हैं या यूँ कहंेअनाड़ी चोर हैचोर बनने की कोशिश हैपूरी प्लानिंग है। एक ग्रामीण सरल महिला के घर में दूर की रिश्तेदारी के हवाले से प्रवेश भी कर जाते हैं। किन्तु वहीं महिला जब अपनेपन से भोजन परोसती हैतब चोर के हलक में एक फाँस अटक जाती है। करने और न करने के बीच की जद्दोजहद रेणु के संवदिया’ की कहने-न-कहने के बीच की फाँस याद दिला जाती है। वहीं दूर-दूर से अज्ञेय की साँप’ कविता भी चलती जाती हैमानो आगाह कर रही हो-तुम सभ्य तो हुए नहीं।’ गोविन्द मिश्र बुन्देलखण्डी बोली एवं शहरातू घाघ’ तथा बासी-बासी ठंड’ जैसे मुहावरों से अभिधा में भी जादू बुनते है।

सम्मेलन में रविन्द्र कालिया जी की गौरैया’ से रू-ब-रू होने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ । जेठ की दोपहरी से कहानी आरंभ होती हैजहॉ गौरैया की मधुर आवाज ही एक मात्र राहत है। कहानीकार ने मंदिर-मस्जिदरामजन्म-भूमि आदि विषयों की चर्चा के साथ साम्प्रदायिकता के कुचक्र के समक्ष गौरैया’ की निरीहता को चुनौती के स्तर पर खड़ा कर बिल्कुल नवीन किन्तु सफल प्रयोग किया है। वस्तुतः गुजरात दंगो के एक पीड़ित की हाथ जोड़े मुद्रा की वह तस्वीरजो सभी भारतीयों के दिलो-दिमाग में चस्पां हो गयी हैयही बताती है कि बाकी जगह नियंता की भूमिका वाला इंसान साम्प्रदायिक दावानल के समक्ष कितना निरीह हो जाता है। कहानी के मध्य में गौरैया की अनुपस्थिति में घोसले में उसके बच्चे को लेकर कहानीकार की चिन्ता बरबस ही पाठक को विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध मेरे राम का मुकुट भींग रहा है’ में लेखक की चिन्ता से रू-ब-रू करा देता है। कठोर विषय पर लिखी यह कहानी कोमल प्रतीको एवं कोमल भावनाओं के अंकन से विशिष्ट बन पड़ी है। अन्त में जब कहानीकार लिखता है, ‘‘जन्मभूमि नाम से ही मुझे दहशत होने लगी । मगर मुझे विश्वास हैयहाँ फसाद की कोई आशंका नहीं हैक्योंकि यहाँ एक चिड़िया ने जन्म लिया थाभगवान ने नहीं।’’ तब पूर्व प्रधानमंत्री वी0पी0 सिंह की पँक्तियाँऐसा लगता हैनेपथ्य में गूंज रही हो:-

’’भगवान हर जगह है,

इसलिए जब चाहे मुट्ठी में कर लेता हूँ 

मेरे और तुम्हारे भगवान में 

कौन महान् है,

निर्भर करता है

किसकी मुट्ठी बलवान है।’’ 

 

वर्तमान में देश में असहिष्णुता बढ़ी है या नहीं - यह बहस का विषय है और बहस जारी भी है। साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाया जाना सही है या गलत - इस पर भी बहस जारी है। किंतु हिंदी कहानी की सुदीर्घ परंपरा में जब-जब सांप्रदायिकता का जहर फैला हैतब-तब कोई अज्ञेय शरणार्थी’ बनकरया मोहन राकेश ’’मलबे का मालिक’’ बन उसका प्रतिकार करने को तैयार मिले हैं। कभी असगर वजाहत का सम्पूर्ण लेखन उससे लोहा लेने को तैयार दिखा हैतो कभी रवीन्द्र कालिया की ’’गौरैया’’ ही संकीर्ण कट्टरपंथ के विरूद्ध साहित्यिक प्रतिबद्धता की पहरूआ बनी है। वर्तमान में जब आई0एस0आई0एस0 के चरमपंथ का दायरा वैश्विक होने लगा हैसर्वेश्वर की पँक्तियाँ कहानी सेसाहित्य से पाठकीय अपेक्षा को प्रतिबिंबित करती है:-

’’तेंदुआ गुर्राता है,

तुम मशाल जलाओ,

क्योंकि तेंदुआ गुर्रा तो सकता है

मशाल नहीं जला सकता।’’ 

जैसा कि पहले भी लिखा गया हैसमकालीन कहानी की चुनौतियाँ नई हैं। फेसबुकब्लॉग तथा अन्य सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाली युवा पीढ़ी के समक्ष मांग-पूर्ति के समीकरण के असंतुलन का लाभ चेतन भगत सरीखे लेखक उठा रहे हैं। यह नई पाठकीय अपेक्षा है। समकालीन भाषासमकालीन मुहावरों एवं समकालीन पाठकों के अनुरूप कहानी को स्तर बरकरार रखते हुए लगातार बदलने कीढलने की चुनौती है। स्वातंन्न्योत्तर कहानी में टूटते परिवार एवं बदलते मूल्यों के ऊपर बहुत लिखा गया है। मोहन राकेशकमलेश्वरराजेन्द्र यादवमन्नु भंडारी तथा अन्य कहानीकारों ने एकल परिवार के अकेलेपनअजनबीयत तथा संत्रास को बखूबी स्वर दिए हैंपर अपार्टमेंट संस्कृति में यह अकेलापनयह अजनबीयत और सघन हो चुकी है। भीष्म साहनी के ’’चीफ की दावत’’ की माँ आज और भी अकेलीऔर भी अप्रासंगिक हो गई है। सतह के नीचे होने वाली ये तब्दीलियाँ और अधिक डिटेल्स के साथ कहानी में प्रतिबिंबित होना चाहती हैं।

देशज भाषा को अपनी ताकत बनाकर एक रवीश कुमार के विषय पर अद्यतन जानकारी एवं आत्मविश्वास के साथ बोलने पर सारा देश सुनता हैकिंतु हिंदी पट्टी के बहुसंख्यक युवा इसी देशज परवरिश के कारण कुंठा में एक अप्रामाणिक दोहरी जिंदगी जीने को संघर्षरत है। हिन्दी कहानी को ऐसे युवाओं के मौन को स्वर देना है। 

कहानी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करे किंतु साथ-ही-साथ विचारधाराओं को नग्न करते हुएउनकी सीमाएँ रेखांकित करते हुए विचारधाराओं से मुक्त भी करे। कहानी में वाम होदक्षिणपंथ होकिंतु कहानी मुखपत्र न बने।  अपने सम्पूर्ण कलेवर में कहानी लोकतांत्रिक हो एवं लोकतंत्र इस स्तर का कि गैर-लोकतांत्रिक एवं अलोकतांत्रिक मूल्यों को भी अपना पक्ष रखने का पूरा मौका मिले। कहानी अपना ध्येय स्वयं होअपने हिस्से का सच पूरी ईमानदारी से कहे। 

                                                                                                       

                                                                                                                         राहुल कुमार