Thursday, 6 December 2018

अस्पताल का वेटिंग रूम

कितने दफ़े
बुरे सपनों के दौरान
सहसा टूटी नींद ने तसल्ली बख्शी है
पर अब जबकि दुस्वप्न का दौर
खींचता जा रहा बदस्तूर
सुबह, अपने साथ खालीपन लाती है,
तसल्ली नहीं।

अस्पताल के वेटिंग रूम में
जबकि हर शख्स है भयभीत
सहमा- सा,
देखा है मैंने सबको अनायास
एक दूजे का ग़म साझा करते।
यूं तो सामान्यतया
हर ग़मज़दा इंसान
पाता है अपने ग़म को सबसे बीहड़,
अस्पताल के अंदर दुनियावी तहरीरें
काम नहीं करती हू-ब-हू,
यहां दर्द मापने का कोई स्केल नहीं होता।

वेटिंग रूम में
तकलीफ़ और आशंका की परछाई के बीच
उनींदी आंखें
रोज रात का दुर्गम सफ़र तय करती हैं।
सहसा भोर का सन्नाटा
कोरीडोर में गूंज रही चीत्कारों से
टूटता है और
मन भले ही उस सत्य का
सामना करने में पाता हो
ख़ुद को असमर्थ,
बुद्धि सहज ही भांप लेती है
उम्मीद भरी एक और ज़िन्दगी
बॉडी में तब्दील हो चुकी है।
कई तहों के भीतर
खौफ़ की सिहरन महसूस करते
हम अपनी- अपनी ज़गह पर
और सिमट जाते हैं।
नहीं पाते तहरीरी क़ायदों को
निभाने की ताक़त अपने अंदर।
नहीं जुट पाते सांत्वना के दो शब्द।
आगे का अलक्ष्य फ़ासला
और बीहड़ हो जाता है।
                    राहुल कुमार
                    06/12/2018
           सर गंगाराम हॉस्पिटल, नई दिल्ली।