Sunday 11 February 2024

अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा



 रविवार का दिन और रवि कथा। 


विगत एक माह में अपने प्रिय कथाकार रवींद्र कालिया के ऊपर परोक्ष-अपरोक्ष यह तीसरा संस्मरण पढ़ रहा हूँ। इसके पहले अखिलेश की ‘अक्स’ में कालिया जी के ऊपर सत्तर पृष्ठ और काशीनाथ सिंह की ‘याद हो कि न याद हो’ में ‘साढ़े चार यार’ के बहाने उनकी ज़िंदगी को एक समकालीन लेंस से देखने का मौक़ा मिला। ममता जी की ‘अन्दाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा’ को पढ़ते हुए लगता है कि हम कालिया जी की ज़िंदगी घर के अंदर से देख रहे हैं- एक इनसाइड view की लक्ज़री का एहसास होता है। 


जो आधी सदी का साथी चला गया है, उसके बारे में लिखना है। भावोद्रेक और विह्वलता दोनों से बचना है, निःसंग होने का तो ख़ैर विकल्प ही न था। यारों के यार रवींद्र कालिया के बारे में ऐसा बहुत कम था, जो पहले से लिखा-सुना न गया हो। रवानियत से भरी मलंग ज़िंदगी जीने वाले कालिया जी का जो कुछ रहा सबका रहा। ऐसे में ममता जी के ऊपर यह संस्मरण लिखने के वक़्त जो चुनौती रही होगी, वह समझी जा सकती है, किंतु अपने बाक़ी लेखन की तरह ही उन्होंने पाठकों को अपनी इस यात्रा में न केवल शरीक किया है बल्कि यात्रा में बराबर वाली सीट दी है। 


ऐसे तो किताब में कई संस्मरण हैं जो हिन्दी साहित्य के इस स्टार रचयिता के जीवन और साहित्य यात्रा का एक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करतें हैं, जिसे हम आजकल के तौर पर The Making of Ravindra kalia कह सकते हैं। कई ऐसे वाक़ये हैं, जिनमें हम अपना कनेक्ट ढूँढ लेते हैं, परन्तु एक घटना का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूँगा। स्थूल तौर पर देखें तो इसे ‘घटना’ कहना भी उचित नहीं होगा, किंतु किसी के मनोविज्ञान पर असर के दृष्टिकोण से कई बार इनके निशान स्थायी होते हैं और ‘आदम के साँचे गढ़ने’ में इनका योगदान महीन लेकिन अप्रतिम।


कालिया जी के बचपन का प्रसंग है:- “एक लड़के के पास शार्पनर देखकर मुझे पक्का विश्वास हो गया कि उसने घर से पैसे चुराकर ख़रीदा होगा। एक दिन जब मैंने उसके पिता को शार्पनर के बारे में बता दिया। उसका टका सा जवाब था कि, फिर क्या हुआ? मुझे तो उम्मीद थी कि वह मुझे शाबाशी देगा कि तूने बताकर अच्छा किया। उस घटना का मेरे दिमाग़ पर गहरा असर हुआ। समाज में असमानता का अहसास भी पहली बार हुआ कि हर किसी के पास हर चीज़ नहीं हो सकती।”


बचपन के इन प्रसंगों का कितना गहरा और अमिट प्रभाव होता है, यह सोचते हुए अपने अंतस् के साँकल में बंद एक याद सहसा कौंध उठी। सन् 1995 में अपने माता-पिता के साथ ‘दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’ देखने सिनेमाहॉल गया था। भीड़ अधिक होने के कारण मुझे उनके साथ सीट नहीं मिल पायी। आगे जिस कुर्सी पर मैं बैठा, वहाँ पहले से दो रुपये के दो सिक्के पड़े हुए थे। शायद पिछले शो के किसी दर्शक की जेब से गिरे हुए थे। ‘मोरल साइंस’ की परीक्षा देने वाला मैं आठ वर्ष का लड़का बग़ल की कुर्सी पर बैठे एक आदमी से पूछता हूँ, “अंकल, ये पैसे आपके हैं?” उस आदमी ने मुस्कुराते हुए वो सिक्के ले लिए। कालिया जी की तरह मैंने भी सोचा होगा कि यह आदमी मेरी ईमानदारी पर मुझे शाबाशी देगा, पर उसकी मुस्कुराहट मेरी बेवक़ूफ़ी के पराजयभाव की तरह मेरे बालमन और फिर अवचेतन पर चिपक गई। 


बहरहाल, रविकथा पर विस्तार से ममता कालिया जी से अगली मुलाक़ात में। 

Sunday 4 February 2024

चक्रव्यूह

 चक्रव्यूह नहीं है कोरी किंवदंती,

स्वानुभूति में लगती है 

लोक की छौंक, 

और दन्तकथाएँ बनती हैं।

महाकाव्य जितनी कवि की सफलता है

उतनी ही

लोकानुभूति की ज़िंदारूप मौजूदगी। 


काव्य की भाँति 

जीवन-शिल्प का व्याकरण भी

तयशुदा रास्तों का मुरीद है, 

छंद-अलंकारों से 

मुक्त-भाव-प्रवाह को 

बाँधने की कोशिशें होती रही हैं

बदस्तूर। 


मठाधीशों को 

मंज़ूर नहीं है

हुक्म-अदूली, 

लीक का भंग होना, 

‘महाप्राण’ को भी किया गया था 

ख़ारिज कभी। 

खाप पंचायतें हमेशा 

हुक्का गुड़गुड़ाती

खाट पर नहीं बैठतीं। 

***************

कई बार हम सब सही, 

सबके साथ सही करने की 

क़वायद में, 

होते हैं आत्मवंचना के शिकार, 

कई बार आप महज़ 

पाए जाते हैं

पॉपुलर नोशन के ख़िलाफ़

फेस-टू-फेस, 

मेटाफर मात्र कविता में रंग 

भरने के लिए नहीं होता, 

दरअसल 

एक अभिमन्यु हम सबके भीतर है। 


Thursday 19 October 2023

सांत्वना पुरस्कार


 विगत एक दशक की लोकसेवा में अपनी टीम के प्रयास से राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार हासिल करने का अवसर मिला पर आज से बारह वर्ष पूर्व मिला यह ‘सांत्वना पुरस्कार’ हमेशा ख़ास रहेगा। 


एक लड़का जिसकी पूरी शिक्षा-दीक्षा राज्य के सुदूरवर्ती नेपाल सीमा पर अवस्थित क़स्बे में हुई हो, जिसे दसवीं के बाद औपचारिक शिक्षा लेने का मौक़ा न मिला हो, जो स्वाध्याय की बदौलत पहले सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी और फिर लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में दाखिल तो हो गया हो पर पृष्ठभूमि की साधारणता और परिवेश के अभिजात्य का संघर्ष कुछ इस क़दर हावी रहे कि सफलता के आनंद की जगह अस्तित्वमूलक प्रश्न स्थायी भाव बन जाए, जिसकी उपस्थिति को साथी प्रशिक्षु अधिकारी ‘Blink & Miss Probationer’ कहके ख़ारिज कर दें; ऐसे लड़के के लिए घुड़सवारी (Horse riding) जैसी तथाकथित इलीट प्रतिस्पर्धा में महज़ भाग लेना ही एक ‘स्टेटमेंट’ सरीखा था। वहाँ किसी और से कंपीट नहीं करना था, लड़ाई थी ख़ुद के आत्मविश्वास की। यह लड़ाई केवल उस घोड़े को साधने की नहीं थी जिसकी सवारी आप कर रहे थे, लड़ाई उस अदृश्य सवार को साधने की भी थी, जिसका बोझ आपके कंधों पे विरासत में मिला हो। तो भले ही यह पुरस्कार ‘सांत्वना’ का था, पर भविष्य के लिए इसमें बहुत बड़ा ‘आश्वासन’ भी था। 


आज अपने पैतृक निवास पर धूल लगे इस स्मृति चिह्न को देखकर लगा कि अतीत की कुछ स्मृतियों से धूल हटानी चाहिए।


15/10/2023

Sunday 4 June 2023

दहाड़: क्राफ़्ट और किरदार

 दहाड़ सीरीज़ देखते हुए सबसे पहले जो बात खींचती है, वह है उसका क्राफ़्ट। इसकी मिस्ट्री सुरेंद्र मोहन पाठक या वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों की तरह या फिर OTT पर उपलब्ध अन्य crime series की तरह अंत में जाकर नहीं खुलती, बल्कि बिलकुल शुरू से ही एंटागोनिस्ट सामने रहता है, और दर्शक सबूत की तलाश का सफ़र सीरीज़ के किरदार के साथ-साथ तय करता है।

यह कनेक्ट आद्यंत बना रहता है। उदाहरण के लिए जब आरती का पात्र अंजलि भाटी को mislead कर रहा होता है तब दर्शक एक बेबसी महसूस करता है, और उसकी हत्या के बाद भाटी जब कहती है कि उसका झूठ वह नहीं पकड़ पाई, तो किरदार और दर्शक का फ़ासला जाता रहता है। वह बेबसी एकाकार हो जाती है। 


इस सीरीज़ में कलाकारों के उम्दा अभिनय के बारे में बात करते हुए हम कुछ नया नहीं जोड़ रहे होंगे। विजय वर्मा हो या सोनाक्षी सिन्हा या फिर गुलशन देवैया- सबने अपना व्यापक रेंज दिखाया है, पर एक चरित्र जिसने सबसे अधिक ध्यान खींचा है वह है कैलाश पार्घी। जहाँ एक तरफ़ आनंद स्वर्णकार का चरित्र साइकोपैथ सीरियल किलर के ख़ास पैटर्न का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे विजय वर्मा ने आत्मसात् करते हुए जीवंत कर दिया है, वहीं अंजलि भाटी का किरदार भी भारतीय समाज में जातिमूलक एवं लिंग आधारित पूर्वाग्रहों तथा दुर्भावनाओं के विरुद्ध चुनौती की तरह खड़ा किया गया है, जिसे सोनाक्षी ने बिना लाउड हुए (जिसका ख़तरा ऐसे Rebel किरदारों के साथ अक्सर होता है) बखूबी निभाया है। 


ये दोनों चरित्र सशक्त होते हुए भी वर्गीकृत एवं प्रतिनिधिमूलक चरित्र हैं। वहीं पार्घी का किरदार पूरी सीरीज़ में evolve होता है। सीरीज की शुरुआत में जो वह होता है, अंत तक वही नहीं रहता। दर्शक उसके चरित्र और उसके evolution में ख़ुद को ढूँढ पाता है। 


पार्घी को जब अपने होने वाले बच्चे के बारे में पता चलता है तो उसका रिएक्शन कइयों को over the board लग सकता है, किंतु अत्यंत तनावयुक्त जॉब प्रोफ़ाइल वाले लोग यह सहज ही समझ सकते हैं कि प्रोफेशनल स्पेस में घटित होने वाली चीजें कैसे पर्सनल स्पेस को overpower करती हैं और जिन पेशों में products की जगह ज़िंदगियों से डील करना पड़े, वहाँ प्रोफेशनल और पर्सनल का यह द्वंद्व वैसे भी जाता रहता है। 


सीरीज़ की शुरुआत में ईर्ष्या, कुंठा और लालच जैसे भावों का प्रतिनिधि चरित्र प्रतीत होने वाला पार्घी परिस्थितिजन्य चुनौतियों के समक्ष टूटने की जगह मज़बूत बनकर उभरता है। अल्ताफ़ को पुलिस कस्टडी से भगाने में अपने सहकर्मी  SHO देवीलाल सिंह और SI भाटी की भूमिका पता चलने के बाद अब तक प्रमोशन की लालच में रहने वाला पार्घी जब स्कूटर पर एसपी से मिलने निकलता है, तो वह सफ़र उसके किरदार के परिवर्तन का सफ़र है। यह बदलाव प्रेमचंद के किरदारों का हृदय परिवर्तन सरीखा नहीं है। बदलाव सूक्ष्म स्तर पर पहले से घटित हो रहा था। बस उसका उद्घाटन निर्णय की घड़ी में हो रहा है। रेत के टीले पर बैठकर उसका ज़ार-ज़ार रोना मेरी नज़र में पूरी सीरीज़ का सबसे ख़ूबसूरत और मज़बूत दृश्य है। यह रोना उसके किरदार को मानवीय बनाता है। आनंद स्वर्णकार और अंजलि भाटी की तरह कैलाश पार्घी का चरित्र बिलकुल ब्लैक अथवा व्हाइट की श्रेणी में नहीं है, बल्कि चलायमान है, इसलिए हमारे बीच का है और उसका बदलाव नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग। ऐसे nuanced पात्र को निभा ले जाना और दर्शकों तक उस बारीकी का रेशा रेशा पहुँच जाना, सोहम शाह के अभिनय की सफलता है। 


रीमा कागती और ज़ोया अख़्तर को साइकोसोशल स्पेस में एक सशक्त सीरीज़ बनाने के लिए साधुवाद। 


https://hindi.theprint.in/culture/dahaad-web-series-whose-craft-and-characters-unfold-layer-by-layer/547392/

Friday 14 April 2023

पुल

 



न होते पुल तो दूरियाँ कैसे मिटतीं कैसे जुड़ते नदी के सिरे लोगों के दिल सेनाएँ कैसे होतीं पार।

इतना कुछ होने के लिए नदियों को तो सहना ही था अपनी छाती पर वजन धाराओं को बदलनी थी दिशा। लाज़िम था धातुई ठोसता और तरल प्रवाह मान ले एक-दूसरे का सहकार।

Friday 8 April 2022

इज़्ज़त और पितृसत्ता


 आज शाम कार्यालय में एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई। उन्होंने बहुत परेशानी की हालत में बताया कि उनकी बेटी के पूर्व प्रेमी ने पुरानी Video chat की रिकॉर्डिंग वाइरल करने की धमकी देकर पूरे परिवार को परेशान कर रखा है। यहाँ तक की उसने वह video उन्हें (लड़की के पिता को) भी भेज दी।

उन्होंने रोते हुए कहा कि हमारा परिवार ‘वैसा’ परिवार नहीं है और हमारी इज्जत चली जाएगी।मेरे साथ बैठे पुलिस अधीक्षक ने उनसे उस लड़के की details लीं। वह लड़का किसी और जिले का रहने वाला है। हमने उन्हें शीघ्र और सख़्त क़ानूनी कार्रवाई का यक़ीन दिलाया। पर, साथ ही एक और बात उन्हें बतायी।


मैंने उन्हें कहा कि कोई भी परिवार ‘वैसा’ परिवार नहीं होता और ऐसी घटना किसी के साथ हो सकती है इसलिए सबसे पहले इज़्ज़त जाने के भय को दिल से निकालना होगा।

फिर सोचा कि इज़्ज़त की पूरी अवधारणा कितनी पितृसत्तात्मक (patriarchal) है और कैसे इज़्ज़त का पूरा बोझ (इस मामले में) आरोपी की जगह पीड़ित पर आ जाता है। विडम्बना यह है कि पितृसत्ता स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों को भी अपना शिकार बना लेती है।


वह पिता अपनी बेटी के साथ हो रहे अपराध पर यथोचित प्रतिक्रिया देने की जगह समाज में इज़्ज़त को लेकर बेबस और लाचार नज़र आ रहा था। ख़ैर, cyber bullying को बर्दाश्त न करें। आपकी चुप्पी आपकी ‘इज़्ज़त’ बचाए न बचाए, ऐसे आपराधिक तत्वों की हिम्मत ज़रूर बढ़ा देती है।


Wednesday 9 March 2022

जेल की बात


 अपनी नौकरी की शुरुआत में SDM के तौर पर या कुछ वर्ष पूर्व तक जिलाधिकारी के रूप में भी जब जेल में छापेमारी के लिए जाता था तो मोबाइल और सिम कार्ड सबसे common recoveries में शामिल होते थे। 


देर रात या अहले सुबह की रेड में जेल वार्ड की खिड़कियों के बाहर, शौचालयों में, पौधों के गमलों में मिट्टी के भीतर, ईंट के नीचे छुपाकर रखे हुए सिम कार्ड और मोबाइल के अलग-अलग किए हुए हिस्से मिलते थे। 


फ़िल्म और मीडिया द्वारा बनाए गए perception के कारण बाक़ियों की तरह मुझे भी लगता था कि इनमें से अधिकतर का उपयोग जेल के अंदर से क्राइम ऑपरेट करने में होता होगा। 


हाल के दिनों में रेड के दौरान जब मोबाइल मिलने लगभग बंद हो गए तो सालों से बनी हुई समझ में course correction करने की ज़रूरत महसूस हुई। 


वस्तुतः विभाग के आदेश से जब से जेल के अंदर फ़ोन बूथ की शुरुआत हुई तब से ही बंदियों को कक्षपालों से मिलीभगत कर मोबाइल का जुगाड़ करने की ज़रूरत पड़नी बंद हो गयी। 


अपवादों को छोड़ दें तो जेल के अंदर मोबाइल क्राइम ऑपरेट करने के बजाए अधिकतर अपनों से बात करने की छटपटाहट में रखे जाते थे। एक नीतिगत निर्णय कई बार ज़मीनी बदलाव लाने के साथ साथ पूर्वाग्रहों पर भी मारक प्रहार कर जाता है।