Sunday 4 February 2024

चक्रव्यूह

 चक्रव्यूह नहीं है कोरी किंवदंती,

स्वानुभूति में लगती है 

लोक की छौंक, 

और दन्तकथाएँ बनती हैं।

महाकाव्य जितनी कवि की सफलता है

उतनी ही

लोकानुभूति की ज़िंदारूप मौजूदगी। 


काव्य की भाँति 

जीवन-शिल्प का व्याकरण भी

तयशुदा रास्तों का मुरीद है, 

छंद-अलंकारों से 

मुक्त-भाव-प्रवाह को 

बाँधने की कोशिशें होती रही हैं

बदस्तूर। 


मठाधीशों को 

मंज़ूर नहीं है

हुक्म-अदूली, 

लीक का भंग होना, 

‘महाप्राण’ को भी किया गया था 

ख़ारिज कभी। 

खाप पंचायतें हमेशा 

हुक्का गुड़गुड़ाती

खाट पर नहीं बैठतीं। 

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कई बार हम सब सही, 

सबके साथ सही करने की 

क़वायद में, 

होते हैं आत्मवंचना के शिकार, 

कई बार आप महज़ 

पाए जाते हैं

पॉपुलर नोशन के ख़िलाफ़

फेस-टू-फेस, 

मेटाफर मात्र कविता में रंग 

भरने के लिए नहीं होता, 

दरअसल 

एक अभिमन्यु हम सबके भीतर है। 


1 comment:

  1. अच्छी विचार जगाने वाली रचना है

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