Saturday, 15 February 2025

रात और दिन

 



रात और दिन 

ज़ीने से टंके 

दो झरोखों की तरह, 

वक़्त की साँकल से 

खुलते- अनखुलते, 

एक-दूसरे को ताकती 

सुरंग, 

याकि 

एक इनफिनिटी लूप में 

गुत्थमगुत्था 

काल प्रवाह ।


प्रवाह, जिसको बाँटा है 

इकाइयों की सटीक आवृतियों में 

ताकि यक़ीन दिलाया जा सके 

कि कुछ भी यादृच्छिक नहीं है ।


प्रवाह, जिसको बाँधा है 

टाइम और स्पेस की 

जुगलबंदी में 

ताकि बताई जा सके 

वजह 

हर तरतीब 

और 

बेतरतीबी की । 


रात और दिन 

हिंट्स हैं 

एक अनसॉल्व्ड पज़ल के 

जिसे सुलझाने की क़वायद में हैं 

तमाम, जाने-अनजाने ।


रात और दिन 

रिमाइंडर हैं 

कि 

बारम्बार दुहराती क्रिया से 

क्षय की प्रतीति भले न हो

सब कुछ होता जाता है 

तमाम, जाने-अनजाने ।


रात और दिन 

पॉज़ हैं 

नेपथ्य में चल रही 

किसी अभ्यंतर क्रिया के शायद 

जिसे जानने की वर्जना है 

पर जिसके कर्ता हैं 

तमाम, जाने-अनजाने ।