यह नहीं कि इस शब्द-समूह
की महत्ता से परिचित नहीं हूँ मैं,
या फिर
इसके सत्य को
संदेह के कठघरे में
खड़ा किया हो कभी भी.
स्वयं रहा मैं उपासक-साधक
शब्दों का,
मुग्ध होकर देखता रहा हूँ
उस जादुई बिम्ब को
जो हो जाता है निर्मित
ध्वनियों के मेल के इर्द-गिर्द।
पर, जब कभी
शब्द करने लगते हैं अभिव्याप्त
अर्थ को,
सीमा-विस्तार शब्दों के
महात्म्य का,
करने लगता है भाव को
पंगु,
मुझे आपत्ति है!
जितनी निरीह है
ओढ़े हुए खोल से
अंतस के खोखलेपन को
ढकने की कोशिश,
उतना ही आपराधिक
शब्दों का 'अर्थ' की सीमा में
अतिक्रमण।
किसने दे दिया संकुचन का यह अधिकार
'ब्रह्म' को?
मुझे आपत्ति है!
मुझे स्वीकार नहीं
कि
शब्द तो सीना ताने
अपने औदात्य के मद में रहें चूर
और अर्थ!
बेबसी के कोने में
मंथन को अभिशप्त
कि कहाँ तो तय था
जिसका वाहक होना
वह क्योंकर बन बैठा नियंता!
अभिव्यक्ति ही तो शर्त थी
शब्द और अर्थ के बीच
अनुबंध की.
और भले ही,
पुराने उपमानों को
मैला बताने वाले युग कवि ने
स्थापित किया,
कि-
'काव्य सबसे पहले शब्द है
और सबसे अंत में भी
यही बात बच जाती है
कि काव्य शब्द है'
-मुझे आपत्ति है!
( 'तद्भव' के जून 2016 अंक में प्रकाशित कविता।)